हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन के मुद्दे पर मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। उसके बाद मुख्यमंत्री ने कहा – ‘विपक्षी नेताओं ने आंदोलन खत्म कराने में सहयोग का वादा किया है। हमने विभिन्न् हित-समूहों और विपक्षी पार्टियों से सुझाव मांगे हैं, ताकि जाट समुदाय को आरक्षण देने का विधेयक लाया जा सके। इस बीच मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली समिति भी अपनी रिपोर्ट देगी।”
मतलब यह कि हरियाणा के सभी दलों में जाटों को आरक्षण देने के लिए कानून बनाने पर सहमति बनी है। मगर यह साफ नहीं है विधेयक के जरिए जाटों को ओबीसी सूची में डाला जाएगा अथवा उनके लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था होगी? इन दोनों उपायों की राह कठिन है। जाटों को ओबीसी सूची में डालने के लिए जरूरी है कि उन्हें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा सिद्ध किया जाए। यह काम पिछड़ा वर्ग आयोग का है। अलग से आरक्षण देने पर कुल कोटा पचास फीसदी की सीमा पार कर जाएगा। इन दोनों प्रावधानों का कोर्ट में टिकना फिलहाल कठिन लगता है।
तो क्या ताजा वादा भी जाटों को बहलाने का जरिया है? इसके पहले जाटों को मनाने के लिए मुख्यमंत्री ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों का आरक्षण कोटा 10 से बढ़ाकर 20 फीसदी करने का वादा किया था, मगर जाट नेताओं ने इसे लॉलीपॉप बताते हुए ठुकरा दिया। वे अड़े रहे कि उन्हें अन्य पिछड़े वर्ग की श्रेणी में रखा जाए। इसके बाद आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया। रोहतक में पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति की जान भी गई। अलग-अलग घटनाओं में कई लोग जख्मी हुए हैं। आगजनी और तोड़फोड़ हुई है।
कुल मिलाकर वैसा ही नजारा है, जैसा कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश में दिखा था। वहां पर पूर्वी गोदावरी जिले में कापू समुदाय ने आरक्षण की मांग करते हुए हिंसा और तोड़फोड़ की। जाटों की तरह ही कापू भी प्रभावशाली जाति है। मगर अब वह खुद को ओबीसी सूची में शामिल करवाना चाहती है। गुर्जर और पटेल समुदाय इसी मांग को लेकर राजस्थान और गुजरात में हिंसक आंदोलन कर चुके हैं। ऐसी दबंग जातियों की आरक्षण की मांग विभिन्न् प्रदेशों में नए किस्म के सामाजिक तनाव का कारण बन रही है। उनके आंदोलनों के दौरान परिवहन रोकना और तोड़फोड़ आम हो गया है, जिससे आम जनता को भारी परेशानी भुगतनी पड़ती है।
परंतु इस समस्या का एक पक्ष सियासी भी है। राजनीतिक दल मजबूत समुदायों के सामने साफगोई नहीं दिखाते। वोट बैंक की राजनीति के चलते उन्होंने आरक्षण की चर्चा को बेतुके स्तर पर पहुंचा दिया है। इसके बीच किस समुदाय की मांग तार्किक है और किसकी अतार्किक, यह तय करना कठिन हो गया है। तो अब इस पेंच का एकमात्र समाधान यह है कि आरक्षण नीति पर राष्ट्रीय आम-सहमति बने। आवश्यकता विकास और जन-कल्याण को आरक्षण के दायरे से आगे जाकर देखने की है। मगर इसके लिए राजनीतिक साहस की जरूरत है। क्या अपने राजनीतिक दलों से इसकी अपेक्षा की जा सकती है?
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