आज मानवता को बचाने से अधिक कोई करणीय काम प्रतीत नहीं होता। मनुष्य औद्योगिक और यांत्रिक विकास कर पाए या नहीं, इनसे मानवता की कोई क्षति नहीं होने वाली है, किंतु उसमें मानवीय गुणों का विकास नहीं होता है तो कुछ भी नहीं होता है। एक मानवता बचेगी तो सब कुछ बचेगा। जब इसकी सुरक्षा नहीं हो पाई तो क्या बचेगा? और उस बचने का अर्थ भी क्या होगा? मनुष्य एक सर्वाधिक शक्तिशाली प्राणी है, इस तथ्य को सभी धर्मो ने स्वीकार किया है।पर मानव जाति का दुर्भाग्य यह रहा कि उसकी शक्ति मानवता के विकास में खपने के स्थान पर उसके हास में खप रही है। मानवता की सुरक्षा के लिए जिस ऊर्जा को संग्रहीत किया गया था, वह हथियार का रूप लेकर उसका संहार कर रही है।मनुष्य के मन की धरती पर उगी हुई करुणा की फसल व्रूरता से भावित होकर धीरे-धीरे समाप्त हो रही है।यह एक ऐसा भोगा हुआ यथार्थ है, जिसे कोई भी संवेदनशील व्यक्ति नकार नहीं सकता।
पानी को जीवनदाता माना जाता है, सर्वोत्तम तत्व माना जाता है; फिर भी उसके स्वभाव की विचित्रता यह है कि वह ढलान का स्थान प्राप्त होते ही नीचे की ओर बहने लगता है।दूसरों को जीवन देने वाला जल भी जब नीचे की ओर जाने लगे तो उसके कौन रोक सकता है? यही स्थिति आज के मनुष्य की है।सर्वाधिक शक्तिशाली होकर भी यदि वह स्वयं का दुश्मन हो जाए, करुणा को भूलकर व्रूर बन जाए तो उसे कौन समझा सकता है। इस बात को सब मानते हैं कि विज्ञान ने बहुत तरक्की की है।यह बहुत अच्छी बात है।किंतु हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञान में तारक और मारक दोनों शक्तियां होती हैं। कोई आदमी उसकी तारक शक्ति को भूलकर मारक शक्ति को ही काम में लेने लगे, इसमें विज्ञान का क्या दोष।उसके पास मानवता या मानव जाति को बचाने की जो विलक्षण शक्ति है, उसे भुला दिया गया और संहार की भयानक शक्ति को उजागर किया गया।इस स्थिति को बदलने के लिए सम्यक दृष्टिकोण के निर्माण की आवश्यकता है।
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