निस्संदेह बीते दो दशक में मध्य प्रदेश विकास की दौड़ में बड़ी तेजी से आगे निकला है। देश के ह्रदय प्रदेश की सामाजिक स्थिति और अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर आज नजर आ रही है, उसमें पिछली सरकारों की विकासवादी सोच और उसे क्रियान्वित करने के लिए किए गए प्रयासों का अहम योगदान रहा है। यही वजह भी रही है कि 15 महीनों के कांग्रेस की कमल नाथ सरकार के छोटे से कार्यकाल को छोड़कर वर्ष 2003 से 2023 तक प्रदेश की जनता ने भाजपा के विकासवादी एजेंडे को ही स्वीकार किया है। हालिया विधानसभा चुनाव में मिले प्रचंड बहुमत के बाद नई सरकार के मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्री शपथ ले चुके हैं। मंत्रिमंडल विस्तार की कवायद जारी है। जल्द ही सरकार मंत्रियों के साथ काम करना शुरू कर देगी।
कई योजनाओं में भारी-भरकम राशि वितरण
बीते एक दशक में सरकार ने प्रदेश के मतदाताओं के लिए बिजली पर अनुदान, कृषि के लिए अनुदान, विद्यार्थियों के लिए लैपटाप और स्कूटी, लाड़ली बहना योजना में एक करोड़ 31 लाख से अधिक महिलाओं के खातों में नकद राशि भेजने जैसी दर्जनों योजनाएं संचालित कीं। प्रदेश की जनता इससे लाभान्वित तो हो रही है, लेकिन इसके लिए भारी-भरकम राशि का इंतजाम करना किसी चुनौती से कम नहीं है।
पिछली सरकारों ने कर्ज लेकर किसी तरह इन योजनाओं को संचालित किया, लेकिन अब योजनाओं के लिए राशि जुटाना बड़ा सवाल है। इसके लिए न सिर्फ बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना होगा बल्कि अतिरिक्त वित्तीय संसाधन भी नई सरकार को जुटाने होंगे। वित्त वर्ष 2023-24 का प्रदेश का बजट 3.14 लाख करोड़ रुपये का है। इसमें से 40 प्रतिशत से अधिक राशि वेतन-भत्तों और कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च हो जाती है। बीती सरकार ने वर्ष 2023 की पहली छमाही में ही 29 हजार करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज ले लिया था।
नए मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव ने आते ही जो संदेश दिया, उससे दो बातें तो स्पष्ट हैं कि पिछली सरकारों की योजनाओं को वर्तमान सरकार हर स्थिति में लागू रखेगी। दूसरा, इन योजनाओं के लिए राशि का इंतजाम हुए बिना सरकार चलाने की राह आसान होने वाली नहीं है। घोषणाओं को क्रियान्वित करने के लिए नई सरकार ने 38 विभागों की योजनाओं के वित्तीय क्रियान्वयन पर भी रोक लगा दी है ताकि अन्य योजनाओं के लिए राशि मिल सके। हालांकि इससे सरकारी कोष को मिलने वाली राहत भी ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही होगी।
चुनाव से पहले दोनों पार्टियों ने की बड़ी घोषणाएं
अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग सरकार की ‘ऋण कृत्वा घृतं पिवेत’ यानी ऋण लेकर भी घी पीने की नीतियों से सहमत नहीं है। उनके अनुसार सरकारों को घोषणाओं को अमलीजामा पहनाने के पहले बजट का आकलन करना चाहिए। प्रदेश में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा और कांग्रेस ने घोषणाओं की बाढ़ ला दी थी। दोनों दलों को इस बात की जानकारी थी कि मध्य प्रदेश की आर्थिक स्थिति क्या है और यहां के हर व्यक्ति पर करीब 40 हजार रुपये का कर्ज है, इसके बावजूद घोषणापत्रों से लेकर सभाओं तक में नई योजनाओं को लेकर वादे कर दिए गए। ये पूरे कैसे होंगे, इनके लिए राशि कहां से आएगी और इसकी कीमत कहीं अन्य विकास योजनाओं को तो नहीं चुकानी होगी, जैसे सवाल फिलहाल अनुत्तरित हैं।
घोषणाओं को पूरा करना भी नई सरकार के लिए जरूरी है क्योंकि कहीं न कहीं इन्हीं से प्रभावित होकर जनता ने उन्हें वोट दिया है। किसान, कमजोर आय वर्ग के लोगों और विद्यार्थियों के लिए सरकार की योजनाओं का लाभ निश्चित ही प्रदेश की बड़ी आबादी को मिला भी है। गरीब कल्याण और स्वास्थ्य योजनाएं प्रदेशवासियों की आर्थिक स्थिति में बदलाव भी लाई हैं। योजनाओं के एक दशक तक सफलतापूर्वक क्रियान्वयन के बाद अब नई सरकार को इसे आगे भी चलाते रहना होगा।
इतना जरूर है कि फिजूलखर्ची रोकने के लिए सरकार को इन योजनाओं की समीक्षा का बेहतर तंत्र अवश्य विकसित करना चाहिए ताकि ‘कृपापात्र’ अपात्रों को चिह्नित कर उन्हें बाहर किया जा सके। दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती नई सरकार के समक्ष केंद्र की योजनाओं से मिलने वाली राशि के शत-प्रतिशत उपयोग की भी है। वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर केंद्रीय स्तर से आवंटित राशि का पूरा उपयोग नहीं होने की स्थिति में उक्त राशि वापस केंद्र के खातों में पहुंच जाती है। इस राशि का मध्य प्रदेश में ही इस्तेमाल होने पर प्रदेश की राशि का उपयोग सरकार अन्य योजनाओं के लिए कर सकती है।
दरअसल, मध्य प्रदेश के नवनिर्माण के जिस संकल्प पत्र को नई ‘सरकार’ रामायण और गीता की तरह सत्य बताकर हर घोषणा पर अमल करने का दावा कर रही है, उसे अपने वादों को पूरा करने के लिए व्यय और आय के बढ़ते अंतर को कम करना बेहद आवश्यक है। इसके लिए सरकार को आय के नए साधन खोजने होंगे। मुश्किल यहां भी यही होगी कि सरकार को आय बढ़ोतरी के लिए विविध टैक्स बढ़ाने के विकल्प से बचना होगा। नए कर जनता पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ लादेंगे, जो निश्चित ही प्रदेश की जनता नहीं चाहेगी। नई सरकार को ऐसे नए रास्ते खोजने होंगे, जिनसे राजस्व भी बढ़े और जनता पर बोझ बिलकुल न पड़े। यही बड़ी चुनौती है।