हिंसा को हमेशा शक्ति प्रदर्शन की श्रेणी में रखा गया. दंभ के स्वरों की गिनती में हिंसा का शीर्ष स्थान है. शीर्ष पर होने की महत्वाकांक्षा सबकी होती है और इसी महत्वाकांक्षा से पनपता है चुनाव जो देश का भविष्य तय करता है. आज से 2024 लोकसभा चुनाव का आगाज़ हो गया. पहले चरण की 102 सीटों पर आज वोटिंग शुरू है और इसके साथ ही नत्थी है हिंसा. मणिपुर में फायरिंग हुई. 3 लोग घायल हो गए. EVM तोड़ी गई. इसके बाद पश्चिम बंगाल में हिंसा हुई.
बीजेपी और टीएमसी ने एक दूसरे के ऊपर हिंसा को लेकर चुनाव आयुक्त में शिकायत दर्ज कराई. दावा हुआ कि बीजेपी समर्थकों के घर में टीएमसी के लोगों ने तोड़फोड़ की. लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने आरोपों को फर्जी बताया.
पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा होती है चुनावी हिंसा
चुनाव और हिंसा की गठरी हमेशा बंधी रही. देश में जहां चुनाव हुए कमोबेश उस राज्य में हिंसा हुई लेकिन आंकड़े पश्चिम बंगाल की स्थिति बदतर बताते हैं. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2018 की अपनी रिपोर्ट पेश की. रिपोर्ट ने कहा गया कि पूरे साल के दौरान देश में होने वाली 54 राजनीतिक हत्याओं के मामलों में से 12 बंगाल से जुड़े थे. इसी बरस केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार को एडवाइजरी भेजी. उसमें कहा गया कि पश्चिम बंगाल में हुई राजनीतिक हिंसा में 96 लोग मारे गए साथ ही लगातार होने वाली हिंसा गंभीर चिंता का विषय है.
इसके बाद एनसीआरबी की ओर से सफाई आई. ये कहा गया कि उसे पश्चिम बंगाल समेत कुछ राज्यों से आंकड़ों पर स्पष्टीकरण नहीं मिला है. इसलिए उसके आंकड़ों को फ़ाइनल नहीं माना जाना चाहिए. उस रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 1999 से 2016 के बीच पश्चिम बंगाल में हर साल औसतन 20 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. इनमें सबसे ज्यादा 50 हत्याएं 2009 में हुईं. उस साल अगस्त में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने एक पर्चा जारी कर दावा किया था कि दो मार्च से 21 जुलाई के बीच तृणमूल कांग्रेस ने 62 काडरों की हत्या कर दी.
पंचायत चुनावों में बढ़ जाता है हिंसा का आंकड़ा
2018 पंचायत चुनाव से 2021 के विधानसभा चुनाव तक राज्य में काफी हिंसा देखने को मिलीं. ख़ासकर विधानसभा चुनाव के बाद होने वाली हिंसा और कथित राजनीतिक हत्याओं की घटनाओं ने तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी थी. अभी पश्चिम बंगाल में ममता की टीएमसी का राज है. बीजेपी विपक्ष की भूमिका में है लेकिन 1980 और 1990 में, जब बंगाल की राजनीति में बीजेपी और तृणमूल का अस्तित्व नहीं था तब भी कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच हिंसा चरम पर थी.
1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने विधानसभा में आंकड़ा पेश किया जिसमें कहा गया कि 1988-89 के दौरान राजनीतिक हिंसा में 86 राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौत हुई. इनमें 34 सीपीएम के थे और 19 कांग्रेस के. बंगाल की बदहाल स्थिति देख कांग्रेस ने राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपा और राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग की. ज्ञापन में दावा था कि 1989 के पहले 50 दिनों में कांग्रेस के 26 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई है.
2018 के पंचायत चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में 23 राजनीतिक हत्याएं हुई थी. केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े प्रमाण के तौर पर पेश किए जाते हैं. एनसीआरबी ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि साल 2010 से 2019 के बीच राज्य में 161 राजनीतिक हत्याएं हुई और देश में बंगाल इस मामले में पहले स्थान पर था.
बंगाल चुनाव में होती हिंसा का इतिहास
बांग्ला समाज की छवि भले भद्रलोक वाली रही है किंतु चुनावों में ये विपरीत दिखाई पड़ती है. पश्चिम बंगाल देश विभाजन के बाद से ही हिंसा से जूझता रहा. 1979 में सुंदरबन इलाके में बांग्लादेशी हिंदू शरणार्थियों के नरसंहार को आज भी राज्य के इतिहास के सबसे क्रूर अध्याय के तौर पर याद किया जाता है. कई राजनीतिक विश्लेषक का ये मत है कि साठ के दशक में उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने राजनीतिक हिंसा को एक नया आयाम दिया था. किसानों के हो रहे शोषण के विरोध में नक्सलबाड़ी से उठने वाली आवाजों ने उस दौरान पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी.
आंकड़े और किस्से बताते हैं कि 1971 में सिद्धार्थ शंकर रे की कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद राजनीतिक हत्याओं की रफ्तार तेज हो गई थी. 1977 विधानसभा चुनावों में यही उसके पतन का कारण भी बना. सत्तर के दशक में भी वोटरों को आतंकित कर अपने पाले में करने और सीपीएम की पकड़ मजबूत करने के लिए बंगाल में हिंसा होती रही है.
1998 में ममता बनर्जी की टीएमसी का गठन हुआ और यहां से वर्चस्व की एक और लड़ाई आरंभ हुई जिसने हिंसा को एक नया रूप दे दिया. पंचायत चुनावों के दौरान कई इलाकों में भारी हिंसा शुरू हुई. राज्य के विभिन्न इलाकों में बालू, पत्थर और कोयले के अवैध खनन और कारोबार पर वर्चस्व भी पंचायत चुनाव में होने वाली हिंसा की एक प्रमुख वजह है. यह तमाम कारोबार पंचायतों के ज़रिए ही नियंत्रित होते हैं.
बंगाल में विपक्ष की कुर्सी पर बैठी बीजेपी आरोप लगाती है कि नामांकन भरने के लिए भी बंगाल में सुरक्षा बलों की आवश्यकता होती है. यही वजह थी कि कांग्रेस और बीजेपी ने केंद्रीय सुरक्षाबलों की निगरानी में चुनाव कराने की मांग की थी और कलकत्ता हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.