राजनीतिक पार्टियां वोट पाने के लिए बिना सोचे समझे बड़े-बड़े वादे तो कर देती हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद इन्हें पूरा करना उन्हें बहुत महंगा पड़ता है. हर वादे को निभाने के लिए पैसे की जरूरत होती है. हिमाचल प्रदेश पर कर्ज बहुत बढ़ गया है. प्रदेश की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब है. प्रदेश पर कर्ज बढ़कर साढ़े 86 हजार करोड़ रुपये पहुंच गया है.
कहां तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए… कवि दुष्यंत कुमार की ये लाइनें इन दिनों फिटती हैं. 300 यूनिट फ्री बिजली का वादा, ओल्ड पेंशन स्कीम का वादा, महिलाओं को 1500 महीने का वादा करके सरकार तो सुक्खू की बन गई, लेकिन हालत यह है कि आर्थिक संकट आया तो दो महीने तक मुख्यमंत्री, मंत्री, मुख्य संसदीय सचिव, बोर्ड निगम के चेयरमैन, वेतन भत्ता नहीं लेंगे. विधायको तक से मुख्यमंत्री सुक्खू कह रहे हैं कि हो सके तो दो महीना एडजस्ट कर लीजिए. अभी वेतन भत्ता मत लीजिए, आगे देख लेंगे.
जनता के साथ मजाक है ये फैसला?
फिलहाल हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री समेत 11 मंत्री हैं और प्रदेश में छह मुख्य संसदीय सचिव हैं. इन सभी का दो महीने का वेतन लगभग 77 लाख रुपये बनता है. अगर इसमें इनके भत्तों को भी मिला दें तो यह लगभग एक करोड़ रुपये हो जाएगा. ऐसे में 86 हजार 589 करोड़ रुपये के कर्ज में से एक करोड़ रुपये कम कर दिए जाए तो यह 86,588 करोड़ रुपये रह जाएगा. जोकि हिमाचल प्रदेश के कर्ज के इतने बड़े समुद्र में एक बूंद के बराबर भी नहीं है.
इसमें सबसे बड़ा मजाक यह है कि मुख्यमंत्री और मंत्री अपने दो महीने का वेतन छोड़ नहीं रहे हैं, बल्कि वह इस वेतन को दो महीने के लिए डिले कर रहे हैं. मतलब यह वेतन बाद में ले लेंगे. यह फैसला सिर्फ एक दिखावे की तरह है. इसमें जनता तक यह खबर तो पहुंचेगी कि मुख्यमंत्री और बाकी के मंत्रियों ने राज्य पर बढ़ते कर्ज के कारण अपना वेतन नहीं लिया और जब लोग दो महीने बाद इसे भूल जाएंगे तब मुख्यमंत्री और उनके सारे मंत्री चुपचाप अपना वेतन ले लेंगे.
क्यों खाली हो रहा खजाना?
सुक्खू सरकार हिमाचल प्रदेश में ओल्ड पेंशन स्कीम लागू करने के वादे के साथ आई थी. प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों ने कांग्रेस को चुनकर सत्ता में बैठा दिया. इसके बाद से ही हिमाचल प्रदेश गहरे आर्थिक संकट में फंसता चला गया. हिमाचल प्रदेश पर इस समय 86 हजार 589 करोड़ का कर्ज है, जो अगले साल 1 लाख करोड़ तक का हो सकता है.
इस समय हिमाचल प्रदेश के हर नागरिक के ऊपर औसतन 1 लाख 17 हजार रुपये का कर्ज है, जो अरुणाचल प्रदेश के बाद देश में सबसे ज्यादा है. यही कारण कि मुख्यमंत्री सुक्खू ने ऐलान किया है कि उनके मंत्री और हिमाचल प्रदेश के मुख्य संसदीय सचिव दो महीने तक अपना वेतन नहीं लेंगे.
चुनाव के समय में कांग्रेस ने हिमाचल में सरकार बनने पर महिलाओं को 1500 रुपये प्रति माह देने का वादा किया था. इसमें उसको करीब 800 करोड़ रुपये सालाना खर्च करने पड़ रहे हैं. साथ ही ओल्ड पेंशन स्कीम के वादे की वजह से प्रदेश सरकार पर करीब 1000 करोड़ रुपये सालाना का अतिरिक्त भार पड़ रहा है.
यही नहीं दिल्ली की तरह कांग्रेस ने यहां पर 300 यूनिट बिजली फ्री देने का वादा किया था. इसके लिए उसके खजाने से हर साल 18 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं. वैसे इसमें भी एक ट्विस्ट यह है कि भले ही उस समय कांग्रेस ने 300 यूनिट फ्री बिजली देने का वादा किया था, लेकिन हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार 18 महीने बाद भी पूरा नहीं कर पाई बल्कि पहले से फ्री दी जा रही 125 यूनिट बिजली के ऐलान में भी बदलाव करना पड़ा.
पिछले महीने हिमाचल प्रदेश में आयकर भरने वाले घरेलू उपभोक्ताओं को फ्री मिलने वाली 125 यूनिट बिजली पर रोक लगा दी गई. हिमाचल प्रदेश का सालभर का बजट 58,444 करोड़ रुपये है, जिसमें से केवल वेतन, पेंशन और पुराना कर्ज चुकाने में 42,079 करोड़ चला जा रहा है, 20 हजार करोड़ रुपये सालाना तो सिर्फ ओल्ड पेंशन स्कीम का खर्च माना जा रहा है.
नौबत यह कि 28 हजार कर्मचारियों को पेंशन, ग्रेजुएटी और दूसरी मद का 1000 करोड़ रुपया देना है. इसको ऐसे समझें कि अगर सरकार का बजट 100 रुपये है तो वेतन देने में ₹25, पेंशन देने में ₹17, ब्याज देने में ₹11, कर्ज देने में ₹09 और अनुदान ₹10 खर्च हो जाता है. इसके बाद सरकार के पास सिर्फ ₹28 बचते हैं, जिसमें उसको विकास का काम भी करना है और मुफ्त के वादों को भी पूरा करना है.
हिमाचल सरकार ने केंद्र को बताया जिम्मेदार
भारतीय जनता पार्टी ने इसको लेकर सुक्खू सरकार की आर्थिक नीतियों पर निशाना साधा है. सुक्खू ने अपने जवाब में कहा कि 2024-25 की एक्साइज नीति से मिला राजस्व बीजेपी के 5 साल के शासन में हासिल कुल राजस्व से ज्यादा है. हिमाचल प्रदेश की सरकार द्वारा अपनी खराब आर्थिक हालत के लिए कई कारण गिनाए हैं और इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया है. सुक्खू का कहना है कि हिमाचल को रेवेन्यू डेफिसिट ग्रांट्स यानी राजस्व घाटा अनुदान कम दिया जा रहा है.
संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत केंद्र सरकार वित्तीय आयोग की सिफारिश के हिसाब से रेवेन्यू डेफिसिट ग्रांट देती है. इन अनुदान का लक्ष्य अलग-अलग राज्यों के वित्तीय स्त्रोतों में आने वाली असमानता को दूर करना है. राजस्व घाटा अनुदान का मकसद कम राजस्व पाने वाले राज्यों की वित्तीय स्थिति को बनाए रखने के लिए उनके राजस्व में आई कमी को पूरा करना है. ताकि वह ठीक से राजकाज चला सके. इसके लिए देश के अलग-अलग राज्य को अलग-अलग धनराशि दी जाती है.
हिमाचल सरकार की दलील
सरकार कहती है, 2023-24 में उसका राजस्व घाटा अनुदान 8058 करोड़ था. इसमें इस साल 1800 करोड़ रुपये की कमी आई है और यह 6258 करोड़ रह गया है. अगले साल 2025-26 में इसमें 3000 करोड़ की और कमी आएगी और यह 3257 करोड़ रुपये रह जाएगा. हिमाचल सरकार अपनी आर्थिक बदहाली के लिए और भी कारण गिनाती है. सुक्खू सरकार का कहना है कि पीडीएनए के 9042 करोड़ रुपये में से कोई भी रकम अब तक केंद्र से उनकी सरकार को उनके राज्य को नहीं मिली है. पीडीएनए के तहत राज्यों को कुदरती संकटों से होने वाले आर्थिक नुकसान का आकलन कर उसकी भरपाई केंद्र द्वारा की जाती है.
सुक्खू सरकार की यह भी दलील है कि पीएफआरडीए यानी पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी द्वारा उसे नेशनल पेंशन स्कीम यानी एनपीएस योगदान के तहत मिलने वाले 9200 करोड़ रुपये भी अब तक नहीं दिए गए हैं. राज्य सरकार की एक शिकायत यह भी है कि जून 2022 के बाद से जीएसटी कंपनसेशन यानी जीएसटी में कमी का मुआवजा भी राज्य सरकार को नहीं मिला है. इसकी वजह से हर साल 2500 से 3000 करोड़ की आय कम हो रही है. हिमाचल सरकार का कहना है कि ओपीएस बहाल करने के कारण उसके उधार में 2000 करोड़ की कमी कर दी गई है.
सरकारों ने अपनाया कर्ज लेकर घी पीने वाला फॉर्मूला
चार्वाक ऋषि ने कहा था, ‘यावत् जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’. इसका मतलब है कि जब तक ज़िंदगी है, तब तक सुख से जीना चाहिए. अगर इसके लिए कर्ज लेकर घी पीना पड़े तो पीना चाहिए. ऐसा ही कुछ फॉर्मूला हमारे देश में राजनीति पार्टियों ने अपना लिया है और सत्ता का घी पीने के लिए राज्य सरकारें जमकर कर्ज ले रही हैं. हाल में जिन राज्यों में चुनाव हुए और जहां चुनाव होने हैं, वहां पर फ्रीबीज यानी रेवड़ी वाले वादों को पूरा करने के लिए कितना पैसा लगेगा जो मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, महिला भत्ता या सब्सिडी के रूप में खर्च होगा.
- महाराष्ट्र: यहां अभी महिलाओं को पैसा देने वाली स्कीम शुरू की गई है और इसी साल यहां पर चुनाव होना है. अनुमान के मुताबिक रेवड़ी वाली राजनीति के वादों पर अनुमानित खर्च 96 हजार करोड़ रुपये का है, जो राज्य की जीडीपी का 2.2% है.
- कर्नाटक: यहां पर 53 हजार 700 करोड़ रुपये सालाना सिर्फ जनता से किए गए वादों का पूरा करने में जा रहा है. यही वजह है कि पिछले महीने फ्री बस सेवा का वादा पूरा करने में जब राज्य को घाटा होने लगा तो किराया बढ़ाने का प्रस्ताव पेश होने लगा. यहां पर भी राज्य की जीडीपी का करीब 1.9% इन्हीं वादों पर खर्च हो रहा है.
- तेलंगाना: यह राज्य बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन यहां पर 35 हजार 200 करोड़ रुपये सिर्फ मुफ्त वाले वादों पर जा रहा है. यह राज्य की जीडीपी का 2.2% है.
- राजस्थान: कांग्रेस को मात देकर सूबे की सत्ता पर काबिज होने के लिए बीजेपी ने लोगों से वादे किए और अब उसको यह पूरा करने के लिए 30 हजार 700 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं, जो राज्य की जीडीपी का 1.8% है.
- आंध्र प्रदेश: यहां पर हाल ही में चुनाव हुए और एनडीए गठबंधन वाली सरकार है, जिसके मुखिया चंद्रबाबू नायडू और इलेक्शन से पहले किए गए वादों को पूरा करने के लिए अब सरकार को 27 हजार 300 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं, जोकि राज्य की जीडीपी का 1.7% है.
- मध्य प्रदेश: यहां पर बीजेपी की सरकार है और चुनावों के दौरान किए गए वादों को पूरा करने के लिए 23 हजार 400 खर्च किए जा रहे हैं, जो राज्य की जीडीपी का 1.6% है.
- ओडिशा: राज्य सरकार चुनावी रेवड़ी के नाम पर 16 हजार 900 करोड़ रुपये लूटा रही है, जो राज्य की जीडीपी का 1.8% है. हरियाणा: यहां पर चुनावी तरीखों का ऐलान हो चुका है, यहां पर सस्ती बिजली, फ्री बस सेवा और किसानों को बोनस जैसे तमाम ऐलान करके पैसा दिया जा रहा है. जिसके नाम पर 13 हजार 700 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं, जोकि राज्य की जीडीपी का 1.1% है.
किस राज्य पर कितना कर्ज
- वित्तीय वर्ष 2023-24 में जीडीपी के मुकाबले सबसे ज्यादा अरुणाचल प्रदेश पर कर्ज है, जोकि 53 फीसदी है. अरुणाचल की कुल जीडीपी 37 हजार करोड़ की है.
- दूसरे नंबर पर इस लिस्ट में पंजाब आता है, जिसका कर्ज जीडीपी के मुकाबले 46.8 फीसदी है.
- तीसरे स्थान पर नागालैंड आता है, जिसका कर्ज जीडीपी के मुकाबले 41.6 फीसदी है.
- चौथे स्थान पर मणिपुर है, जिसका कर्ज जीडीपी के मुकाबले 40 फीसदी पर है.
- पांचवें स्थान पर मेघालय है, जिसका कर्ज जीडीपी अनुपात 39.9 फीसदी है.
- छठा स्थान हिमाचल प्रदेश का है, जिसका कर्ज जीडीपी अनुपात 39 फीसदी है.
- सातवें स्थान पर बिहार है, जिसका कर्ज जीडीपी अनुपात 35.7 फीसदी है.
- इसके बाद मिजोरम, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, केरल, आंध्र प्रदेश, गोवा, उत्तर प्रदेश, सिक्किम और मध्य प्रदेश का स्थान है. जीडीपी के मुकाबले कर्ज के अनुपात के मामले में यह सभी राज्य 30 फीसदी से ऊपर वाले हैं.
- अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, नागालैंड, मणिपुर और मेघालय जैसे राज्यों पर कर्ज का बोझ ज्यादा होने की भी कई खास वजह हैं. उत्तर पूर्वी राज्यों और अन्य हिमालय राज्यों में औद्योगीकरण काफी कम है, प्राकृतिक संसाधनों का उचित इस्तेमाल नहीं होता है और प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन भी नहीं किया जा सकता है. पंजाब भी कई चुनौतियों से निपट रहा है, लोकलुभावन नीतियों का असर उसके बजट पर दिखता है.