पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का शासनकाल और इमरजेंसी यानी आपातकाल अब फिल्मों का भी स्पेशल सब्जेक्ट है. कुछ सालों से अपना राजनीतिक मंसूबा साफ कर चुकीं कंगना रनौत की इमरजेंसी सांसद बनने के बाद उनकी पहली फिल्म है. ऐसे में इस फिल्म से उम्मीद लाजिमी है. अभिनेत्री-निर्देशक-सांसद कंगना काफी उत्साहित हैं और कंगना के प्रशंसक भी इस इंतजार में हैं कि आखिर उन्होंने इस फिल्म के जरिए कौन सी नई बातें, नई जानकारियां या नया नजरिया सामने रखना चाहा है. आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय था. इस दौरान नागरिक अधिकारों का हनन हुआ, विपक्ष की असहमति को कुचला गया, लोकतंत्र के चौथे खंभे और फिल्म नगरी को भी शासकीय सेंसर से गुजरना पड़ा- ये सब बातें ना तो छुपे तथ्य हैं और ना ही 48 साल पहले जाकर इन्हें सुधारा जा सकता है, इसके बावजूद कंगना रनौत इस फिल्म में ऐसा कौन सा नया तथ्य सामने रखने जा रही हैं, इस पर से पर्दा तभी उठेगा जब फिल्म सिनेमा घरों में रिलीज होगी. फिलहाल रितेश शाह की लिखी इस फिल्म को लेकर विवाद जारी है. फिल्म में पंजाब, इंदिरा गाधी की हत्या और खालिस्तान को लेकर बहस चल रही है.
मीडिया में आए कंगना रनौत के इंटरव्यूज़ के आधार पर उनकी इस फिल्म की कहानी को लेकर कई कयास लगाये जा रहे हैं. कयासबाजी या महज ट्रेलर देखकर किसी फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग करना या उसके खिलाफ सड़कों पर उतरना जायज नहीं. केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड जैसी जिम्मेदार संस्था जब किसी फिल्म को हरी झंडी दिखाती है तो उसे देखने के बाद ही उसका मूल्यांकन होना चाहिए. कंगना अपने बेतुके बयानों और अति उत्साहित सियासी मंसूबों को लेकर अपने विरोधियों के चाहे जितने भी निशाने पर रही हों लेकिन एक अभिनेत्री और कलाकार के तौर पर उनकी पहल और प्रतिभा हमेशा प्रशंसनीय रही हैं. ‘मणिकर्णिका’ फिल्म बनाकर उन्होंने अपने इरादे साफ कर दिये तो ‘थलैवी’ में जयललिता की भूमिका में उम्दा अदाकारी दिखाकर सफलता-विफलता के अंतर को मिटा दिया. अब ‘इमरजेंसी’ उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का सबसे ताजा प्रोजेक्ट है.
इंदिरा गांधी के नाम कितनी फिल्मी आंधी?
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी यानी भारतीय राजनीति की एक लौह महिला. इमरजेंसी फिल्म के ट्रेलर में एक संवाद आता है- सरकार उसे चुनिए, जो आपके लिए कड़े निर्णय ले सके. भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है, इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए कैसे कैसे फैसले लिये थे. लिहाजा देश-दुनिया में उनकी शख्सियत ऐसी बन गई कि उनको लेकर मुहावरा बन गया- इंडिया इज इंदिरा… एंड इंदिरा इज़ इंडिया. फिल्म के ट्रेलर भी इसे सुना जा सकता है. और यही वजह है कि फिल्मों में इंदिरा गांधी से साथ-साथ संजय गांधी को भी दिखाने का चलन आपातकाल के साल में ही शुरू हो गया था. 1975 में लेखक कमलेश्वर के नॉवेल पर गुलजार ने ‘आंधी’ बनाई जिसमें सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी का महज गेटअप दिया गया (थीम अलग था) और उसके बाद 1978 में अमृत नाहटा ने ‘किस्सा कुर्सी का’ तो आईएस जौहर ने ‘नसबंदी’ बनाकर शासन पर सीधा और व्यंग्यात्मक प्रहार किया था.
हालांकि इसके बाद फिल्मों में भ्रष्टाचार और महंगाई का मुद्दा तेजी से उभरा बना और तत्कालीन सत्ता से सवाल भी हुआ मसलन ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ में महंगाई मार गई… आदि लेकिन ‘किस्सा कुर्सी का’ के बाद सिनेमा के पर्दे पर सीधे तौर पर आपातकाल और इंदिरा गांधी का शासनकाल गायब रहा. कभी जरूरत नहीं समझी गई या फिल्ममेकर्स ने इस पर ध्यान क्यों नहीं देना चाहा, यह एक बहस का अलग विषय हो सकता है. लेकिन कंगना रनौत ने जिस राजनीतिक सोच के साथ इमरजेंसी फिल्म बनाई है, वह पिछले कुछ सालों के दौरान बनी उन फिल्मों का विस्तार प्रतीत होती है जो इंदिरा गांधी की लौह महिला वाली इमेज को तोड़ती है या उसके शासनकाल और नीतियों की आलोचना करती है.
पिछले सालों में पर्दे पर कैसी दिखीं इंदिरा?
साल 2017 में आई ‘इंदु सरकार’ फिल्म एक पॉलिटिकल ड्रामा थी. इसमें 1975 के आपातकाल का बैकग्राउंड तो बनाया गया था लेकिन फिल्म का नाम भ्रांतिपूर्वक रखा गया था. पोस्टर देखने पर पहले लगा कि ‘इंदु सरकार’ मतलब इंदिरा गांधी की सरकार. लेकिन फिल्म देखने के बाद पता चला इसमें मुख्य किरदार का नाम ‘इंदु’ है और उसका उपनाम ‘सरकार’ है. फैशन, कॉरपोरेट और चांदनी बार बनाने वाले मधुर भंडारकर की यह सबसे कमजोर फिल्म साबित हुई. उस फिल्म में आपातकाल के हालात दिखाने के साथ-साथ राजनीतिक परिवेश भी दिखाए गए और इंदिरा गांधी के साथ-साथ संजय गांधी भी. इस काल्पनिक ड्रामा के बाद मधुर भंडारकर का ग्राफ फिर कभी ऊपर नहीं उठ सका. मुख्यधारा से गायब हैं. लेकिन उन्होंने ऐसी कहानी का आगाज जरूर कर दिया, जिसमें आपातकाल और इंदिरा गांधी को दिखाने का नया चलन शुरू हो गया.
इसके बाद एक पर एक करके ऐसी कहानियों वाली फिल्में आईं जो इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान की कहानी कहती हैं. उनमें कई कहानी को अनसंग भी बताया गया. ‘एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ जैसी बायोपिक छोड़ भी दें तो अक्षय कुमार की ‘बेलबॉटम’, अजय देवगन की फिल्म ‘भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया’, विकी कौशल की जनरल सैममानेक शॉ की बायोपिक ‘सैम बहादुर’, श्याम बेनेगल की ‘मुजीब’ तो विद्युत जामवाल की IB71 आदि. अब जरा इन फिल्मों में इंदिरा गांधी की उपस्थिति और गैर उपस्थिति को देखिए.
सबसे पहले बात अक्षय कुमार की फिल्म ‘बेलबॉटम’ की. इसमें लारा दत्ता ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई थी. अक्षय कुमार रॉ एजेंट बने हैं. बेलबॉटम बनाने का मकसद भारतीय जेलों में बंद आतंकियों को छोड़ने के बदले किये गये 1984 में भारतीय विमान के अपहरण कांड को दिखाना था. हालांकि बाद में जब बेलबॉटम में दिखाई गई कहानी पर सवाल उठाये थे और कई देशों में फिल्म को बैन कर दिया गया तो फिल्ममेकर्स की तरफ से कहा कि इसमें काल्पनिकता का सहारा भी लिया गया है.
1971 का युद्ध और रील बनाम रीयल इंदिरा
इसी तरह अजय देवगन की फिल्म ‘भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया’ में 1971 की कहानी है, जब भारतीय सैनिकों की मदद से बांग्लादेश का निर्माण हो चुका है और उसकी वजह से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है. तब पाकिस्तान ने हमला करके भुज एयरबेस को तहस-नहस कर दिया. इससे कच्छ के देश से अलग हो जाने का खतरा पैदा गया था. फिल्म में इस घटना के आगे इंदिरा गांधी को लाचार दिखाया गया. तब वायु सेना अफसर बने अजय देवगन को 300 स्थानीय महिलाओं ने साथ दिया और रातों रात एयरबेस को सुदृढ़ किया जा सका.
विद्युत जामवाल की IB71 ने इस दिशा में सबसे अनोखा कारनामा कर दिखाया. इसमें भी 1971 के एक विमान अपहरण की कहानी दिखाई गई थी और इसे अनसंग कहकर प्रचारित किया गया था. कहानी बड़ी चौंकाने वाली है. भारतीय खुफिया विभाग को पता चलता है कि पाकिस्तान चीन के साथ मिलकर दस दिनों के भीतर भारत पर हमला करने वाला है. जिसके बाद आईबी एजेंट बने विद्युत हवाई मार्ग को ब्लॉक करकी योजना बनाते हैं. ताकि वो हमले ना सके. और इसके लिए वह कश्मीरी अलगाववादियों का सहारा लेता है और आम यात्रियों से भरे एक भारतीय विमान को अपहरण करने लाहौर एयरपोर्ट पर उतारा जाता है, जिसके बाद पाकिस्तान का सारा तंत्र उसी में उलझ कर रह जाता है.
हैरानी की बात ये कि इस खतरनाक प्लानिंग को डील करने के लिए आईबी प्रमुख तत्कालीन रक्षा मंत्री जगजीवन राम को तो संज्ञान में लेते हैं लेकिन इतने बड़े ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को न तो दिखाया गया और ना ही उनसे परोक्ष तौर पर भी विचार विमर्श करते हुए दिखाया गया. बिना पीएम के संज्ञान के रक्षा मंत्री कैसे इस खतरनाक ऑपरेशन को अपने तक सीमित रख सकते हैं.
सैम बहादुर का सबसे कमजोर इंदिरा किरदार
इसके बाद मेघना गुलजार के निर्देशन में बनी फिल्म ‘सैम बहादुर’ में इंदिरा गांधी को जिस प्रकार से चित्रित किया गया है वह तो हैरत में डालने वाला है. यह फिल्म भी 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण की पृष्ठभूमि पर आधारित है. फिल्म भारतीय सेना प्रमुख जनरल सैम मानेक शॉ की जीवन गाथा कहती है और युद्ध को लेकर इंदिरा गाधी के साथ उनके मतभेद पर भी फोकस करती है. फिल्म में कई जगहों पर सैम के किरदार में विकी कौशल प्रधानमंत्री से ऐसे नोक झोंक करते हुए दिखाई देते हैं मानों बॉस किसी गलती पर अपने निचले स्टाफ पर नाराज होते हैं. हो सकता है दर्शकों में थ्रिल पैदा करने के लिए फिल्मांकन में यह लिबर्टी ली गई हो लेकिन यह बिल्कुल असहज है कि कोई सैन्य अधिकारी कमर पर हाथ रखकर अपने प्रधानमंत्री के ऊपर स्टाइल में बिफर रहा हो, जैसा कि फिल्म में दिखाया गया था.
श्याम बेनेगल ने दिखाई बड़ी समझदारी
इस मामले में दिग्गज फिल्मकार श्याम बेनेगल ने बड़ी समझदारी दिखाई. उन्होंने जब शेख मुजीबुर्रहमान पर बायोपिक बनाई तो उसमें इंदिरा गांधी की भूमिका के लिए किसी कलाकार का सहारा नहीं लिया. बल्कि भारत के हवाई हमले में पाकिस्तान के हारने के बाद इंदिरा गांधी के उस वास्तविक इंटरव्यू का हिस्सा दिखाना ज्यादा मुनासिब समझा जो उन्होंने बीबीसी को दिया था. इंदिरा गांधी ने उस इंटरव्यू में मुजीबुर्रहमान के आंदोलन का साथ देने की वजह दो टूक शब्दों में बताई और यह भी बताया कि पाकिस्तान को करारा जवाब देना क्यों जरूरी था.
अब देखना है कंगना रनौत की फिल्म इमरजेंसी में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कौन से नये रूप का पदार्पण होता है. ट्रेलर में पूर्व पीएम जवाहर लाल नेहरू, अटल बिहारी बाजपेयी, जगजीवन राम से लेकर सैममानेक शॉ और जयप्रकाश नारायण के बयानों के जरिए इंदिरा गांधी के विभिन्न रूप उभारे गये हैं और खुद इंदिरा को कहते सुना गया है कि नफरत नफरत और नफरत… नफरत के सिवा मुझे इस देश से और मिला क्या है? देखना होगा इमरजेंसी में नफरत या मोहब्बत- आखिर किसका पलड़ा भारी है?