जम्मू-कश्मीर: पहले चरण का चुनाव तय करेगा महबूबा मुफ्ती का भविष्य, दक्षिण कश्मीर पर टिका पीडीपी का अस्तित्व
जम्मू-कश्मीर में दस साल बाद विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. पहले चरण में सात जिलों की 24 विधानसभा सीटों पर मतदान हो रहा है. इन 24 सीटों पर 219 उम्मीदवारों की किस्मत दांव पर लगी है. पहले चरण में दक्षिण कश्मीर रीजन की 16 और जम्मू क्षेत्र की 8 सीटों पर चुनाव होने हैं. दक्षिण कश्मीर के इलाके में पीडीपी का सियासी आधार रहा है, जिसकी बदौलत सत्ता के सिंहासन तक पहुंचती रही है. इस तरह पहले चरण का चुनाव पूर्व सीएम महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी का सियासी भविष्य तय करेगा तो नेशनल कॉन्फ्रेंस की सत्ता में वापसी का दारोमदार भी इसी पर टिका है.
जम्मू-कश्मीर के पहले चरण की 24 विधानसभा सीटों पर 219 उम्मीदवार मैदान में है, जिनकी किस्मत का फैसला 23,27,580 मतदाता करेंगे. इसमें 11,76,462 पुरुष, 11,51,058 लाख महिला और 60 अन्य मतदाता शामिल हैं. चुनाव आयोग ने पहले दौर की 24 सीटों पर 3276 मतदान केंद्र बनाए हैं. मतदाताओं की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी बढ़ाने के लिए महिला केंद्रित पिंक स्टेशन, दिव्यांगों के लिए मतदान केंद्र और ग्रीन मतदान केंद्र भी बनाए गए हैं.
पहले चरण में 24 सीटों पर चुनाव
पहले चरण की 24 सीटों पर सबसे ज्यादा साख पीडीपी की लगी है. पहले दौर की 24 सीटों में से 21 सीट पर पीडीपी ने उम्मीदवार उतारे हैं. इसके बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के 18 प्रत्याशी मैदान में लड़ रहे हैं जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस 9 सीट पर चुनाव लड़ रही है. बीजेपी पहले फेज की 24 में से 16 सीट पर ही चुनाव लड़ रही है. इसके अलावा 147 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में हैं. पहले चरण में महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती सहित 9 महिलाएं भी किस्मत आजमा रही हैं.
पीडीपी के भाग्य का फैसला
कश्मीर के पहले चरण का विधानसभा चुनाव महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी के भाग्य का फैसला करेगा, जो अपने गठन के 25वें साल में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. पीडीपी के गढ़ दक्षिण कश्मीर में पहले चरण का मतदान इसकी दिशा तय करेगा. दक्षिण कश्मीर के चार जिलों की 16 और जम्मू के तीन जिलों की 8 विधानसभा सीटें पर वोटिंग है. दक्षिण कश्मीर की सभी 16 सीटों पर सिर्फ पीडीपी ने ही अपने उम्मीदवार उतारे हैं. ऐसे में साफ है कि पीडीपी का सियासी भविष्य दांव पर लगा है.
दक्षिण कश्मीर क्षेत्र से हुई शुरुआत
पीडीपी की सियासी शुरुआत दक्षिण कश्मीर क्षेत्र से हुई है. 2014 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी को सबसे ज्यादा सीटें इसी इलाके से मिली थीं. इसी की बदौलत पीडीपी सरकार भी बनाने में कामयाब रही. अब जम्मू-कश्मीर की सियासत बदल चुकी है और पीडीपी की राजनीतिक स्थिति भी पहले जैसी नहीं रही. अनंतनाग से नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार से लोकसभा चुनाव हारने वाली महबूबा मुफ्ती ने विधानसभा चुनाव से किनारा कर लिया है. चुनाव लड़ने के बजाय पार्टी को बचाए रखने की कवायद में जुटी हैं.
बेटी को चुनावी मैदान में उतारा
महबूबा मुफ्ती ने खुद विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाय अपनी बेटी इल्तिजा मुफ्ती को चुनावी रणभूमि में उतारा है. इल्तिजा मुफ्ती अपने परिवार की परंपरागत श्रीगुफवारा-बिजबेहरा सीट पर कड़ी टक्कर मिल रही है. इस सीट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस से बशीर अहमद शाह और बीजेपी से सोफी यूसुफ से उनका मुकाबला है. इसके अलावा अनंतनाग, कुलगाम, शोपियां और पुलवामा विधानसभा सीटें तय करेंगी कि पीडीपी का भविष्य क्या होगा, क्योंकि इन सीटों पर महबूबा मुफ्ती और उनके पिता का सियासी रसूख रहा है.
पीडीपी के लिए कैसे बढ़ी चुनौती
पीडीपी का गठन 1999 में हुआ, उसके बाद लगातार सियासी बुलंदी चढ़ती गई. साल 1998 में बीजेपी के दिल्ली में सत्ता में आने के बाद से कश्मीर की सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया, लेकिन वाजपेयी का सौम्य चेहरा और कश्मीर क्षेत्र में भाजपा की महत्वाकांक्षा की कमी ने राजनीति को प्रभावित नहीं किया. इसके विपरीत पीएम मोदी ने जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष दर्जा खत्म कर केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया. ऐसे में कश्मीर में लोगों के बीच यह बात फैली है कि पीडीपी के पीछे दिल्ली का हाथ है. इसकी वजह यह थी कि पीडीपी ने 2015 में बीजेपी के साथ गठबंधन किया और उसे राज्य की सत्ता में लाई.
विशेष राज्य का दर्जा
पीडीपी ने 2018 में बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ते ही कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म करने का रास्ता तय करा दिया. पीडीपी से गठबंधन टूटने के बाद जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. 2019 में केंद्र की सत्ता में वापसी के साथ ही मोदी सरकार ने विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर दिया है और केंद्र शासित प्रदेश बना दिया. इसके लिए कश्मीर की सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने पीडीपी को ही जिम्मेदार ठहराया, जिसके चलते ही नेशनल कॉन्फ्रेंस ने महबूबा मुफ्ती के साथ गठबंधन भी नहीं किया. पीडीपी चुनाव में अकेली दिखाई दे रही हैं, जिसके चलते विधानसभा चुनाव का मुकाबला उनके लिए अपने सियासी वजूद को बचाए रखने का है. ऐसे में देखना है कि पीडीपी क्या सियासी असर दिखा सकती है.