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त्योंथर विधानसभा चुनावी दंगल…त्रिकोणीय मुकाबले में कौन कितना मजबूत, जानिए इस रिपोर्ट में…

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रीवा: रीवा जिले का तराई अंचल राजनैतिक रूप से दो विधानसभाओं में बंटी हुआ है। दोनों ही विधानसभा उत्तरप्रदेश की सीमा से सटी हुई हैं। सीमा के जुड़ाव के कारण उत्तरप्रदेश की राजनैतिक आवो हवा से प्रभावित होते हैं जिनमें त्योंथर विधानसभा कुछ ज्यादा। विगत 2018 के चुनाव में यहां से भाजपा उम्मीदवार श्यामलाल द्विवेदी ने कांग्रेस उम्मीदवार रमाशंकर सिंह पटेल को शिकस्त देते हुए पूर्व मंत्री मध्यप्रदेश शासन रमाकांत तिवारी  की सीट को सरकार रखा था। इस बार त्योंथर विधानसभा के समीकरण कुछ बदले बदले नजर आ रहे हैं। भाजपा ने जहां कांग्रेस के कभी विंध्य क्षेत्र के दिग्गज ब्राह्मण नेता रहे श्रीयुत श्रीनिवास तिवारी के पोते सिद्धार्थ तिवारी उर्फ राज को ऐन चुनावी वक्त में लाकर त्योंथर विधानसभा सीट बरकार रखने को उतारा है तो वहीं कांग्रेस ने लगातार दो चुनावों में कम अंतर से हार रहे रमाशंकर सिंह पटेल को चुनावी समर में उतारा है। वहीं वर्ष 2008 के बाद लगातार पिछड़ रही बसपा ने भाजपा से बाहरी व्यक्ति को टिकट दिए जाने से मायूस होकर बसपा में शामिल हुए देवेन्द्र सिंह को चुनावी समर में उतार कर चुनावी जंग को त्रिकोणीय बनाने का प्रयास किया है। इसी तरह अन्य कई दल एवं निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी समीकरणों को प्रभावित करने अपना भाग्य आजमाने चुनावी समर में ताल ठोक रहे हैं।

तीनों प्रमुख दलों के प्रत्याशियों पर अगर निगाह डाली जाय तो सबके अपने अपने मजबूत और दुर्बल पक्ष हैं। साथ ही सभी को अपनी अपनी पार्टी के असंतुष्टों के असंतोष से दो चार होना पड़ सकता है।
सबसे पहले प्रदेश और देश की सत्ता पर काबिज भाजपा पर निगाह डालें तो संगठन की दृष्टिकोण से सर्वाधिक मजबूत है। जिसका प्रमाण विगत 2018 के चुनाव में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अति सामान्य आर्थिक स्थिति के साधारण कार्यकर्ता को जीता कर दे चुका है। स्थानीय कई टिकट के दावेदार नेताओं को दरकिनार कर भाजपा ने कांग्रेस से टिकट मांग रहे सिद्धार्थ तिवारी को उम्मीदवार बनाया है। सिद्धार्थ तिवारी का मजबूत पक्ष है कि उनका परिवार विंध्य की राजनीति का जाना माना घराना है। उनके बाबा श्रीयुत श्रीनिवास तिवारी 1993 से 2003 तक मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे और रीवा की प्रशासनिक व्यवस्था उनके इसारे पर चलती रही। उनका कद पार्टी और सरकार में इतना बड़ा था कि उनकी मर्जी के विपरीत मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी रीवा के संबंध में कोई निर्णय नहीं कर सकते थे। उनकी प्रशासनिक और राजनैतिक कद कांठी की छाया में अनेकों क्षत्रप जिले के अंदर स्थापित हुए। जिनके बल पर माना जाता है कि रीवा की हर विधानसभा क्षेत्र में कम से कम पांच हजार वोट सुरक्षित हैं। सिद्धार्थ तिवारी का एक और मजबूत पक्ष है उनके पिता स्वर्गीय सुंदरलाल तिवारी। वे रीवा लोकसभा क्षेत्र से एकबार सांसद और गुढ़ विधानसभा क्षेत्र से विधायक रह चुके हैं। मध्यप्रदेश की विधानसभा में व्यापमं घोटाले को जबदस्त ढंग से उठाकर पूरे प्रदेश में अपनी एक संघर्षशील नेता की छवि बनाई थी। उनके समर्थक भी त्योंथर विधानसभा में बड़ी संख्या में हैं। सिद्धार्थ तिवारी स्वयं भी किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं यह अलग बात है कि वो अभी अभी भाजपा में शामिल हुए हैं परंतु लगभग दो वर्षों से वो क्षेत्र में कांग्रेस नेता के रूप में अपने समर्थकों के संपर्क में थे।

विगत 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में तीन लाख से ज्यादा मतों से पराजित जरूर हुए थे लेकिन मिले मतों में त्योंथर विधानसभा में अन्य विधानसभाओं के अनुपात में ज्यादा थे। अगर भाजपा प्रत्याशी के कमजोर पक्ष पर निगाह डालें तो अप्रत्याशित रुप से भाजपा से प्रत्याशी होना भी एक है। कांग्रेस और सिद्धार्थ तिवारी के पारिवारिक क्षत्रपवाद की राजनीति के विरोध में राजनीति करते आ रहे भाजपा के कार्यकर्ताओं को सहजता के साथ स्वीकार्य होने में समय लग सकता है और इससे भितरघात की संभावना प्रबल होगी तथा चुनाव परिणाम में प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

अगर कांग्रेस प्रत्याशी पर निगाह डाली जाय तो लगातार दोनों चुनावों में बढ़ते क्रम में नजर आया है। त्योंथर विधानसभा क्षेत्र में दबंग नेता के रूप में पहचान रखने वाले पूर्व विधायक स्वर्गीय रामलखन सिंह पटेल के पुत्र हैं जिन्हें त्योंथर के सजातीय मतदाताओं का नेतृत्व विरासत में प्राप्त है। उनके पिता लीक से हटकर कांग्रेस में शामिल हुए थे और तबसे त्योंथर कांग्रेस का निरंतर नेतृत्व करते हुए लगातार तीसरी बार टिकट हासिल की है। उनका मिलनसार व्यक्तित्व उन्हें अन्य वर्गों के मतदाताओं से जोड़ने का अवसर देता है। अगर कमजोर पक्ष पर निगाह डाली जाय तो जाति विशेष के नेता की छवि उनका सबसे कमजोर पक्ष नजर आता है। अगर वो मतदाताओं के बीच स्वयं को आम आवाम का नेता होने का विस्वास नहीं करा पाए तो चुनाव परिणाम में नुकसानदायक हो सकता है।

इसी तरह अगर बसपा और बसपा प्रत्याशी पर निगाह डाला जाय तो 2008 के बाद के चुनावों में लगातार बसपा का ग्राफ गिरता रहा है। तीसरे नंबर से ही बसपा प्रत्याशी को संतोष करना पड़ता रहा है। देवेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाए जाने से एकबार फिर बसपा तेजी से चुनावी समर में शामिल होती नजर आ रही है। देवेंद्र सिंह भी ऐन चुनावी वक्त पर बसपा से उम्मीदवार घोषित हुए हैं। लेकिन भाजपा में रहते हुए देवेंद्र सिंह स्वयं की निजी पहल से जनता से जुड़ाव स्थापित किए हुए थे। शहीदों के सम्मान में तिरंगा यात्रा से लेकर हरिजन आदिवासियों के बीच विभिन्न कार्यक्रम चलाते हुए अपनी पहचान कायम की थी। वर्ष 2016 से हरिजन आदिवासियों बस्तियों में रक्षासूत्र अभियान चलाकर महिलाओं से राखी बंधवाते आ रहे हैं। इसी तरह क्षेत्र के गरीब परिवारों के बुजुर्गों को स्वयं के व्यय पर ” बुजुर्गों का तीर्थ भ्रमण-देवेंद्र बने श्रवण” के तहत हजारों की संख्या में बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा कराकर जनता के बीच स्वयं की पहचान स्थापित किया है। युवाओं को खेल के प्रति प्रेरित करने के लिए अपने पिता की याद में विधानसभा स्तर पर खेल आयोजन कर युवाओं के बीच भी लोकप्रियता पाई है। इतना ही नहीं भाजपा के असंतुष्ट कार्यकर्ताओं के लिए विकल्प बनकर अपनी उम्मीदवारी को मजबूत किया है। अगर उनके कमजोर पक्ष पर निगाहें डालें तो बसपा में जमीनी संगठन का कमजोर होना है विभिन्न जातियों का इधर उधर बिखराव भी कमजोर पक्ष है। जो चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकता है।

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