राजनीति को विरोधाभास का बेहतर उदाहरण कहना कतई अनुचित नहीं है। राजनीति करने वाले जनसेवा की बात कहते हैं लेकिन मूल लक्ष्य सत्ता पाना होता है। सफाई में वे यह भी कह देते हैं कि सत्ता होगी तभी जनसेवा कर पाएंगे। इसके बिना जनसेवा के संसाधन कहां से लाएंगे। मतलब येन-केन-प्रकारेण सत्ता चाहिए ही।
दूसरा, राजनीतिक दलों के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे एक सिद्धांत, विचारधारा को लेकर आगे बढ़ते हैं लेकिन यदि यही सिद्धांत हर चुनाव के पहले बदल जाए तो क्या कहा जाएगा। राजनीति में दल को बदलना बहुत बुरा माना जाता है। स्वतंत्रता के बाद कालांतर में इसे समझने-अनुभव करने के बाद वर्ष 1985 में दलबदल विरोधी कानून बनाया गया ताकि जनप्रतिनिधि जनादेश का आसानी से दुरुपयोग न कर पाएं लेकिन यह संसद, विधानसभाओं में लागू होता है, दलों के संगठन में नहीं। जाहिर है, सिद्धांत और पसंद बदलने में देर नहीं लगती।
मध्य प्रदेश में इन दिनों कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले नेताओं की भीड़ लगी हुई है। एक ही दिन में 1900 कांग्रेस नेता भाजपा में शामिल हो गए। स्थिति यह बनी कि मंच छोटा पड़ गया। भाजपा ने गर्व से यह भी बताया कि मध्य प्रदेश में अब तक 16,600 कांग्रेस नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं।
प्रदेश की राजनीति में ऐसा दौर शायद ही पहले कभी देखा गया हो। नेता पहले भी दल बदलते रहे हैं और उनके साथ कार्यकर्ता भी लेकिन थोकबंद तरीके से पार्टी बदलने का यह मामला अनूठा है। वर्ष 2023 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में भगदड़ मची है। भाजपा इन नेताओं को पार्टी में शामिल करने में संकोच भी नहीं कर रही है। अभी तो कांग्रेस को सांगठनिक रूप से बेहद कमजोर करने की रणनीति पर काम चल रहा है। इन नेताओं के पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं-नेताओं के साथ संतुलन-समन्वय आदि पर विचार शायद ही हुआ हो।
हर ऐसे अवसर पर यही कहा जा रहा है कि पार्टी सबको सम्मान देगी लेकिन इस बात से इन्कार कौन कर सकता है कि आकर्षक पद या स्थान सीमित ही होते हैं। बहरहाल यह क्रम जारी है। भाजपा ने तो न्यू ज्वाइनिंग टोली नामक विभाग भी बना दिया है, जो यही काम देखता है। इसके प्रदेश संयोजक पूर्व गृह मंत्री डा. नरोत्तम मिश्रा हैं। वह यह भी कहने से नहीं चूके कि मध्य प्रदेश में इस सदस्यता अभियान को गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज कराएंगे।
समझा जा सकता है कि भाजपा इस मौके को गंवाना नहीं चाहती। इस स्थिति में जनता के प्रति जवाबदेही और सिद्धांत, विचारधारा से जुड़े सवाल फिलहाल अनुत्तरित हैं। शायद ही कोई जवाब देना भी चाहे। इन नेताओं को इस पर विचार जरूर करना चाहिए कि भले वे निष्ठुर और निरापद हों लेकिन अंततः जाना जनता की अदालत में ही है। आदर्शों, सिद्धांतों को तिलांजलि देने का सिर्फ यही कारण नहीं होना चाहिए कि एक दल बेहद सफल और दूसरा लगातार विफल हो रहा है। ऐसा होने से मजबूत विपक्ष की अवधारणा को भी काफी चोट पहुंच रही है और यह अच्छे लोकतंत्र के लिए कतई स्वीकार्य नहीं किया जाना चाहिए। यदि विपक्ष नहीं रहेगा तो फिर लोकतंत्र की खूबसूरती भी कायम नहीं रह पाएगी। जनता की आवाज उठाने का ही दावा कर राजनीतिक दल सत्ता हासिल करते हैं। विपक्ष के नहीं होने से परेशानियां बढ़ेगी ही।
राजनीति शास्त्र की किताबें भी राजनीतिक दलों की परिभाषा को लेकर एकमत नहीं हैं। राजनीतिक दल के नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह शक्ति यानी ताकत की ओर अभिमुख संगठन है। इनका प्रमुख उद्देश्य शक्ति के पदों को प्राप्त करना, उन्हें अपने हाथों में बनाएं रखना और उनका दल और समाज के हित की दृष्टि से उपयोग करना है। समाज के हित की दृष्टि से राजनीति की जाए तो कुछ भी अनुचित नहीं है।
दल का हित देखना या उसे सत्ता में लाना या बनाए रखना भी अनुचित नहीं है लेकिन इसमें जनता को विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए। ताजा मामलों को देखें तो सभी उदाहरण सत्ता में बैठे संगठन में शामिल होकर उसकी शक्ति में हिस्सेदारी प्राप्त करने का मामला ही दिखता है। प्रदेश में विपक्षी दल कांग्रेस को सवा साल के अपवाद को छोड़कर सत्ता सुख प्राप्त नहीं हुआ है। केंद्र में 10 साल, मध्य प्रदेश में 20 साल और बहुत से नगरीय निकायों में भी कांग्रेस कई दशक से सत्ता लाभ नहीं उठा पाई है। ऐसे में उसके नेता कब तक धैर्य धरें। यह धैर्य इसलिए भी टूट जाता है क्योंकि भाजपा उन्हें सीधे पार्टी में प्रवेश करवा भी रही है। इसमें ऐसे बहुत से नेता हैं जो सिर्फ भाजपा का तमगा चाहते हैं बाकी वे अपने लक्ष्य और उद्देश्य प्राप्त कर ही लेंगे।
हालांकि आज के दौर में यह बहुत ही आउटडेटेड है फिर भी प्रजातंत्र में यदि जनता के प्रति जवाबदेही के सवाल अनुत्तरित रहेंगे तो भविष्य उज्ज्वल तो कतई नहीं कहा जा सकता। निजी अपेक्षाएं, उम्मीदें अपनी जगह हैं लेकिन यह भी देखना चाहिए कि कैसे किसी दल से जुड़े होने के नाते ही लाखों लोग उन्हें वोट देते हैं, उन पर अपना भरोसा जताते हैं। कांग्रेस के इन नेताओं ने भले ही काफी पहले लेकिन जनता के इस भरोसे का लाभ उठाया भी है।
सत्ता पक्ष से मोहभंग होना कोई दुर्लभ बात नहीं है। यह भी होकर रहेगा। बदलाव प्रकृति का नियम है इसलिए भाजपा फिलहाल खुश हो सकती है लेकिन कांग्रेस भी आशा रख सकती है। भाजपा में शामिल होने वाले 16 हजार नेताओं में से ज्यादातर एक क्षेत्र विशेष की राजनीति करने वाले हैं। जाहिर हैं, उनका जनता से सीधा सामना होता होगा। वे अपने फैसले पर सटीक तर्क शायद ही दे पाएं लेकिन जनता की अदालत में उनकी छवि दल-बदलू की बनी है। विश्वसनीयता आदि पर सवाल तो खड़े हो ही रहे हैं। यह सवाल केवल कांग्रेस से नहीं भाजपा के पुराने कार्यकर्ता भी तो पूछेंगे ही। जाहिर है तब तक इंतजार ही करना होगा।