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चुनाव के लिए मार्केटिंग प्रोजेक्ट बना इलेक्शन कैंपेन, जानें पार्टियों के लिए क्यों जरूरी हुईं एजेंसियां

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चुनाव के नतीजे क्या चुनावी रणनीतिकार और उनके द्वारा संचालित कंपनियां प्रभावित करती हैं? अगर करती हैं तो किस हद तक? चुनाव में उनका रोल कितना बड़ा और अहम होता है? हार और जीत के अंतर पर चुनावी रणनीतिकार की ओर से बनाई गई रणनीति और रूप रेखा कितना असर डालती है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो किसी भी चुनाव में बड़े उलटफेर के बाद पूछे जाते हैं, जहां किसी चुनावी रणनीति बनाने वाली कंपनी की मदद ली गई हो. लोकसभा 2024 के चुनाव नतीजे सामने आने के बाद अब नतीजों का इसी नजरिए से विशलेषण किया जा रहा है. 2024 में एक बड़ा उलटफेर आंध्र प्रदेश में भी देखने को मिला. चंद्रबाबू नायडू ने चौथी बार आंध्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है.

आंध्र प्रदेश में ये बड़ा चुनावी उलटफेर कैसे हुआ और किन मुद्दों की वजह से चंद्रबाबू नायडू अपने ही पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ने में कामयाब रहे. इससे पहले चंद्रबाबू नायडू को भी इतनी बड़ी जीत नहीं मिली थी. चंद्रबाबू नायडू ने अपने चुनावी कैंपेन को जमीन पर उतारने के लिए शो टाइम कंपनी की सेवाएं ली थीं. टीडीपी ने उनकी मदद से एक चुनावी रणनीति बनाई और एक बड़ी जीत दर्ज की.

‘शो टाइम’ को चलाने वाले रॉबिन पहले प्रशांत किशोर के सहयोगी रहे हैं. पिछले चुनाव के दौरान प्रशांत किशोर की अगुवाई में आईपैक ने जगन मोहन रेड्डी को बड़ी जीत दिलाई थी. प्रशांत अब आईपैक के साथ नहीं हैं. हालांकि, आईपैक अभी भी जगन मोहन रेड्डी के लिए काम कर रही थी. जबकि आईपैक से अलग हुए रॉबिन टीडीपी के लिए काम कर रहे थे.

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शो टाइम ने टीडीपी के लिए कई कैंपेन चलाए, जैसे युवा गलम ( युवाओं की आवाज). इस दौरान चंद्रबाबु नायडू के बेटे नारा लोकेश ने 3000 किलोमीटर से ज़्यादा की पदयात्रा की. एक अन्य कैंपेन ‘बाबू ने मल्ली राप्पीदाम’ ( हम बाबू को वापस लाएंगे) और निजम गेलावली (सच की जीत होगी) कैंपने के ज़रिए लोगों को टीडीपी के पक्ष में लामबंद किया. इसके अलावा पार्टी में संगठन के स्तर पर भी एकसमानांतर ढांचा बनाया. इसकी वजह से एक-एक मतदाता तक पहुंचने की कोशिश की गई. इसमें उन्हें मिली सफलता राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दी.

चुनावी रणनीतिकारों का वक्त, तकनीक के बढ़ते असर के साथ बढ़ता जा रहा है. सबसे पहले ये चर्चा प्रशांत किशोर के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कैंपेन में अहम योगदान देने और पीएम मोदी की अगुवाई में 2014 में बीजेपी को 282 सीटो तक पहुंचाने में उनके योगदान के साथ शुरू हुई थी. हालांकि चुनावी रणनीतिकार पहले से चुनावों में भी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की मदद करती रही हैं. लेकिन अब तकनीक का इस्तेमाल, मैनेजमेंट के फॉर्मूलों का योगदान , तकनीक के जरिए ज्यादा से ज्यादा वोटर तक पहुंचने, उनके मन की बात समझने और फिर उसके आधार पर रणनीति बनाने में किया जाता है. अब ये वक्त की जरूरत भी बन चुका है.

सुनील कानूगोलू जिन्होंने बीजेपी के लिए कई अहम कैंपेन चलाए अब कांग्रेस का टास्क फ़ोर्स के साथ काम कर रहे हैं. उनका नाम कांग्रेस की कर्नाटक जीत और भारत जोड़ो यात्रा की सफलता के साथ जोड़ा जाता है. ऐसा नहीं है कि चुनावी रणनीतिकार हमेशा सफलता ही दिलाते हों. जीत हार के लिए कई फैक्टर हमेशा एक साथ काम करते हैं.

भारतीय राजनीति और वोटर के मन को समझना आसान नहीं होता. आखिरी समय तक उसे बूथ तक लाने और अपने पक्ष में वोट करने के लिए प्रेरित करना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है. जिस देश में कोस-कोस पर बोली और जायका बदल जाता है, वहां कोस-कोस पर जाति और मुद्दे भी बदल जाते हैं. ये जरूर कहा जा सकता है कि चुनावी रणनीति बनाने वाली कंपनियों ने मुद्दे तलाशने, वोटर के मन को भांपने, उनकी उम्मीदों, उनकी महत्वाकांक्षाओं, उनकी नाराजगी को एक दिशा देने का काम करती है. जिसके लिए वो अलग-अलग तरह के पोल कैंपेन चलाती हैं.

चुनावी रणनीति बनाने वाली कंपनियां क्या अलग करती हैं

चुनावी प्रक्रिया से लोगों को जोड़ने का काम करती है. जो वैसे भी जरूरी है ताकी उदासीनता ना आए. कंपनी प्रतिद्वंद्वियों की कमियों को तलाशने, उसके सामने अपनी पार्टी और नेता को खड़ा करने का काम करती हैं लेकिन ये काम राजनीतिक पार्टियां भी हमेशा से करती आईं हैं. फिर चुनावी रणनीति बनाने वाली कंपनियां क्या अलग करती हैं और क्यों उनका इतना बोल बाला क होता जा रहा है.

ये कंपनियां पार्टी का हिस्सा नहीं होती तो पार्टी की अंदरूनी राजनीति से इनका आम तौर पर कोई लेना देना नहीं होता और इसलिए निष्पक्ष होकर चुनावी रणनीति बनाने पार्टी और नेता की कमियों को उजागर करने में इनका अहम रोल हो सकता है लेकिन ये इतना आसान नहीं है.

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