लोकसभा चुनाव के बाद देश की सियासत पूरी तरह से बदल गई है. इस चुनाव में ओबीसी मतदाता असल ‘गेम चेंजर’ साबित हुए हैं. इसके चलते ही बीजेपी 303 सीटों से घटकर 240 सीट पर पहुंच गई है. पीएम मोदी को सहयोगी दलों के सहारे सरकार बनानी पड़ी है. बीजेपी ने अपने खिसके हुए जनाधार को दोबारा से वापस लाने के लिए ओबीसी पर खास फोकस किया है. लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने सभी राजनीतिक नियुक्तियों में ओबीसी को ही अहिमयत देने का काम किया है. फिर चाहे प्रदेश अध्यक्ष बनाने की बात हो या विधान परिषद सदस्य और राज्यसभा सदस्य की बात हो. ऐसे में देखना है कि बीजेपी क्या दोबारा से ओबीसी का विश्वास जीत पाएगी?
देश में जनसंख्या के लिहाज से सबसे ज्यादा दबदबा अन्य पिछड़ा वर्ग का है. इसकी आबादी 50 फीसदी से भी ज्यादा है. केंद्रीय ओबीसी सूची में करीब ढाई हजार जातियां शामिल हैं. ये जातियां अब तक अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की समर्थक हैं. लोकसभा चुनाव में इस बार ओबीसी जातियों के वोटिंग पैटर्न देखें तो बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के वोट प्रतिशत में गिरावट देखने को मिली थी. जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को फायदा मिला है. ओबीसी वोट खिसकने के चलते यूपी, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में बीजेपी की सीटें कम हो गई हैं. इसीलिए बीजेपी अब दोबारा से ओबीसी वोटरों को साधने के जतन में जुट गई है.
बिहार बीजेपी अध्यक्ष पद पर ओबीसी
बीजेपी ने बिहार और राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष में बदलाव किया है. राजस्थान में ब्राह्मण समुदाय के नेता सीपी जोशी को बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर ओबीसी समुदाय से आने वाले मदन राठौड़ की ताजपोशी कर दी है. इसी तरह बीजेपी ने बिहार में सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर दिलीप जयसवाल को संगठन की कमान सौंप दी है.
राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष मदन राठौड़ ओबीसी के घांची समाज से आते हैं. बिहार के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जयसवाल कलवार समाज से हैं. इस तरह से बीजेपी ने दोनों प्रदेश में पार्टी की कमान ओबीसी समुदाय के नेता को सौंप दी है. इसके पीछे बीजेपी का सियासी मकसद साफ छिपा हुआ है. बिहार में 62 फीसदी तो राजस्थान में 55 फीसदी के करीब ओबीसी समुदाय के लोग हैं, जिसे देखते हुए बीजेपी ने दांव खेला है.
महाराष्ट्र में ओबीसी पर लौटी बीजेपी
महाराष्ट्र में खिसके सियासी जनाधार को बीजेपी दोबारा से पाने के लिए एक फिर से चार दशक पुराने फॉर्मूले पर लौटी है. बीजेपी ने एमएलसी चुनाव में पंकजा मुंडे, परिणय फुके, अमित बोरखे, योगेश टिलेकर और सदाभाऊ खोत को प्रत्याशी ही नहीं बनाया बल्कि जिताने का भी काम किया है. इसमें तीन ओबीसी समुदाय से हैं और दलित-मराठा एक-एक हैं.
सूबे की सियासत में अपनी जड़ें जमाने के लिए बीजेपी ने ओबीसी समुदाय के तहत आने वाली माली, धनगर और वंजारी समुदाय को जोड़कर माधव फॉर्मूला बनाया था. इसी सोशल इंजीनियरिंग के दम पर बीजेपी लंबे समय तक राजनीति करती रही है, लेकिन 2014 के बाद से मराठा समुदाय पर फोकस करने के चलते माधव फॉर्मूला पीछे छूट गया था. इसका नुकसान बीजेपी को 2024 चुनाव में लगा है. इसीलिए बीजेपी ने अपने पांच में से तीन ओबीसी एमएलसी बनाए हैं ताकि अपने पुराने वोटबैंक का विश्वास जीता जा सके.
यूपी में ओबीसी पर ही खास फोकस
उत्तर प्रदेश में बीजेपी का सियासी वनवास ओबीसी वोटों के दम पर ही टूटा था. 2014 में बीजेपी ने गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों पर फोकस करके एक मजबूत सोशल इंजीनियरिंग बनाने में कामयाब रही, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा के पीडीए फॉर्मूले के चलते सेंध लग गई है. कुर्मी, कोइरी, निषाद जैसी ओबीसी जातियां इस बार सपा के पाले में खड़ी रही हैं. इसकी वजह से बीजेपी यूपी में पहले नंबर की पार्टी से नंबर दो की पार्टी बन गई है जबकि सपा 37 सीटों के साथ सबसे पड़ी पार्टी बन गई है.
ऐसे में बीजेपी अब दोबारा से ओबीसी वोटरों का विश्वास जीतने की कोशिश में है, जिसके लिए स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई विधान परिषद की सीट पर मौर्य समाज से आने वाले बहोरन लाल मौर्य को एमएलसी बनाने का काम बीजेपी ने किया है. इस तरह बीजेपी ने यूपी में भविष्य के लिए अपने संकेत दे दिए हैं कि उसका फोकस ओबीसी पर ही रहने वाला है.
बिहार में कुशवाहा पर जताया भरोसा
बिहार की सियासत ओबीसी वोटों के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है. इसीलिए बीजेपी ने लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा का प्रत्याशी बनाने का ऐलान किया है. लोकसभा चुनाव में मीसा भारती और सीपी ठाकुर के बेटे विवेक ठाकुर के सांसद चुने जाने के बाद उनकी राज्यसभा सीटें खाली हो गई हैं. उपेंद्र कुशवाहा लोकसभा का चुनाव काराकाट सीट से इसीलिए हार गए थे, क्योंकि भोजपुरी एक्टर पवन सिंह चुनाव मैदान में निर्दलीय उतर गए थे.
इसके चलते ही बीजेपी ने कुशवाहा को राज्यसभा भेजने का फैसला किया है. इसके जरिए कुशवाहा को साधे रखने के साथ-साथ ओबीसी वोटों को भी संदेश देने की स्ट्रैटेजी मानी जा रही है. इसके अलावा बीजेपी ने जिस तरह से प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर सम्राट चौधरी से लेकर ओबीसी समुदाय से आने वाले दिलीप जयसवाल को सौंपी है, इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी का फोकस बिहार में किस वोट बैंक पर है.