राजस्थान के सीकर जिले में खाटू श्याम जी का प्रसिद्ध मंदिर है. इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का कलयुग अवतार माना जाता है. खाटू श्याम जी का मंदिर एक प्रमुख तीर्थ स्थल है और लाखों श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते हैं. खाटू श्याम जी के प्रति लोगों मे इतनी अगाध श्रद्धा है कि इनके भक्तों की संख्या दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है. इसका अंदाजा लोगों के घरों गाड़ियों और गले में पड़े लॉकेट में उनकी तस्वीर या उनके लिए लिखा गया धार्मिक नारा “हारे का सहारा, बाबा खाटू श्याम हमारा” देखकर ही लगाया जा सकता है.
आखिर खाटू श्याम नाम के आगे हारे का सहारा क्यों लगाया जाता है इसका भी एक खास कारण है. अक्सर बहुत से लोग यही सोचते हैं कि इस शब्द का अर्थ भक्तों के कष्टों को दूर करने वाले देवता से होता होगा, लेकिन इसके पीछे कुछ और रहस्य भी होते हैं, जो खाटू श्याम जी के हर भक्त को पता होना चाहिए.
कौन हैं खाटू श्याम जी ?
जिन भगवान खाटू श्याम जी के प्रति लोगों मे अगाध श्रद्धा है, वे खाटू श्याम कोई और नहीं बल्कि पांडवों के वंशज हैं. खाटू श्याम जी भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र हैं. इनका असली नाम बर्बरीक है. प्राचीन कथाओं के अनुसार, बर्बरीक बचपन से ही बहुत वीर योद्धा थे और उन्हें भगवान कृष्ण ने ही कलियुग में अपने नाम से पूजे जाने का वरदान दिया था.
खाटू श्याम जी को हारे का सहारा क्यों कहा जाता है?
महाभारत कथा के अनुसार, महाभारत युद्ध के समय भीम के पोते बर्बरीक भी इस युद्ध में शामिल होना चाहते थे, लेकिन बर्बरीक न तो पांडवों के पक्ष में थे और न ही कौरवों के. क्योंकि बर्बरीक ने अपनी माता को वचन दिया था कि वे इस युद्ध में उसी पक्ष का साथ देंगे जो युद्ध में हार रहा होगा. जब महाभारत के युद्ध में कौरवों की हार होने लगी और वे पांडवों के सामने कमजोर पड़ने लगे, तब बर्बरीक ने अपनी माता की आज्ञा लेकर हारने वाले पक्ष कौरवों की ओर से लड़ाई लड़ने का फैसला लिया. बर्बरीक एक माह प्रतापी योद्धा थे, अगर वे कौरवों की ओर से युद्ध लड़ते तब निश्चित ही पांडवों की हार होती.
इस बात को भगवान श्रीकृष्ण भी अच्छे से जानते थे इसलिए बर्बरीक की भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षा ली जिसके बाद युद्ध लड़ने से पहले ही भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से उनका शीश दान में मांग लिया, और महान बर्बरीक ने भी बिना किसी संकोच के अपना शीश काटकर श्रीकृष्ण को दान में दे दिया. बर्बरीक ने भीम के पौत्र होने के बाद भी पांडवों का साथ नहीं दिया. बल्कि उन्होंने उस पक्ष को चुना जो हार रहा था ,कमजोर पड़ रहा था. इसलिए ही उन्हें हारे का सहारा कहा जाता है.