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असम के लिए कितना बड़ा है नागरिकता मुद्दा, जानिए किस पीएम ने इसके लिए क्या किया

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सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रमुख नागरिकता नियम की वैधता को बरकरार रखा है, जो असम में आए बांग्लादेशी प्रवासियों को भारतीय नागरिक के रूप में स्वयं को पंजीकृत करने की अनुमति देता है. भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने 4:1 बहुमत से इस फैसले को बरकरार रखा. जस्टिस जेबी पारदीवाला ने असहमति जताई जबकि बाकी जजों (जिनमें जस्टिस सूर्यकांत, एमएम सुंदरेश और मनोज मिश्रा शामिल थे) ने इसका समर्थन किया.

यह आदेश उस याचिका पर आया, जिसमें कहा गया था कि बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) से शरणार्थियों के आने से असम के जनसांख्यिकीय संतुलन पर असर पड़ा है. इसमें कहा गया था कि नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए राज्य के मूल निवासियों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन करती है.

कैसे शुरू हुआ असम आंदोलन ?

असम आंदोलन को ठीक से समझे बिना हम आज के नागरिकता के मुद्दे को ठीक से समझ नहीं सकते. 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई और 1977 के शुरुआत में इसे हटा लिया गया, जिसके बाद देश में चुनाव हुए और इसमें जनता पार्टी जीती.जनता पार्टी में जो चार पार्टी में शामिल थीं, इनमें एक पार्टी का नाम जनसंघ भी था. यही जनसंघ बाद में जब जनता पार्टी से अलग हुई और 1980 में भारतीय जनता पार्टी बनाकर उभरी. ऐसे में असम का सारा संकट कांग्रेस बना बीजेपी की एप्रोच पर समझना बहुत जरूरी है. क्योंकि देश में शुरू से कांग्रेस के शासन था और बीजेपी का मानना था कि वहां पर जो बांग्लादेश से बहुत सारे लोग (विशेष रूप से मुसलमान) आ रहे हैं, उनको कांग्रेस पार्टी आश्रय दे रही है. ऐसे में हम कह सकते हैं कि यह वोट बैंक का मामला ज्यादा है और अंतरराष्ट्रीय मामलों से कम है.

1977 में देश में मोरारजी की सरकार बनी, जिसमें अटल बिहारी वाजपेई विदेश मंत्री, लालकृष्ण आडवाणी सूचना प्रसारण मंत्री और जॉर्ज फर्नांडीज उद्योग मंत्री थे. फिर 1978 में हुए असम के विधानसभा चुनावों में जनता पार्टी यहां जीत गई, अब केंद्र और राज्य दोनों में जनता पार्टी की सरकार थी. इसका मतलब यह था कि अब यह सरकार असम में आ रहे विदेशियों के मुद्दे पर काम करेगी और उनको वहां से हटाने का मुद्दा ज्यादा प्रबल होगा. दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार बनने के बाद यह बात उठना शुरू हुई और यह हुआ भी, क्योंकि पहली बार 1978 में एक विशेष घटना से दिखना भी शुरू हुआ.

चुनाव आयोग का 1978 में बड़ा खुलासा

असम में 1978 में लोकसभा सीट मंगलदोई के सांसद हीरालाल पटवारी की मृत्यु के बाद उप चुनाव कराए जाने थे, लेकिन उससे पहले चुनाव आयोग ने एक बयान देकर सभी को चौंका दिया. चुनाव आयोग का कहना था कि 1971 के इलेक्शन में जो मतदाता सूची थी उसमें 1978 की मतदाता सूची में जमीन-आसमान का अंतर है, इस बीच में बहुत सारे लोगों ने अपना नाम वोटर लिस्ट में शामिल करवा लिया है. उसने यह भी बताया कि वोटर लिस्ट में जो लोग शामिल हुए हैं, इनमें से अधिकांश बांग्लादेश से आए हुए हैं और लोकल पॉलिटिशियन ने दबाव बनाकर उन सभी का नाम मतदाता सूची में शामिल करवा दिया. इससे असम के मूल निवासियों को लगने लगा कि अब इलेक्शंस में भी माइनॉरिटी में आ जाएंगे और उनकी बात सुनी नहीं जाएगी.

जैसे ही यह बात सामने आई कि वोटर लिस्ट में बहुत बड़ी संख्या में 1971 के बाद लोग शामिल हुए हैं तो एक आंदोलन शुरू हुआ. आंदोलन करने वाली जो संस्था का नाम ऑल असम स्टूडेंट यूनियन था. गुवाहाटी विश्वविद्यालय छात्र संघ का नाम 1967 के दौर में आशा (असम स्टूडेंट्स एसोसिएशन) था और बाद में 1970 में बदलकर आशु हो गया. यह इसी पूरे आंदोलन के केंद्र में रही. आंशु के इस आंदोलन का साथ देने के लिए कुछ लोगों ने ऑल असम गण संग्राम परिषद (एएजीएसपी) बना ली. इन दो संगठनों ने केंद्र सरकार के सामने थ्री डी की डिमांड रखी. इसने कहा कि 1978 का मंगलदोई इलेक्शन तब तक नहीं होना चाहिए, जब तक इलीगल माइग्रेंट्स की पहचान कर उनको गिरफ्तार नहीं किया जाता, उनकी नाम मतदाना सूची से हटा नहीं दिया जाता और उनको वापस उनके देश भेजा जाए. केंद्र में मोरारजी की सरकार थी और उनके मनाने पर दोनों संगठन मांग गए, जिसके बाद मंगलदोई का चुनाव हो गया.

जनता पार्टी की सरकार गिरते ही फिर लटका मामला

1979 तक आते-आते स्थितियां फिर बदलने लगी और यहां से एक टर्निंग पॉइंट आया और चौधरी चरण सिंह ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिसके बाद जनता पार्टी की सरकार गिर गई. दिसंबर 1979 में केंद्र के फिर से चुनाव होना तय हुआ, जिसके बाद आंदोलनकारियों ने आवाज उठाई कि करीब 40 लाख लोग यहां पर अवैध हैं तो कैसे निष्पक्ष चुनाव होगा. असम आंदोलनकारियों की बात को सरकार ने नहीं माना और यहां की 14 सीट पर किसी ने भी नामांकन नहीं करने का ऐलान किया, जहां पर 14 में से 10 सीटों में किसी ने भी पर्चा दाखिल नहीं किया. 4 सीटों में से दो पर चुनाव कैंसिल करना पड़ा और सिर्फ दो सीट पर ही वोटिंग हुई. हालांकि यह पूरे देश का चुनाव था और इसके बाद इंदिरा एक बड़े नेता के रूप में उभरी. केंद्र में अब इंदिरा गांधी की सरकार थी और असम में जनता पार्टी की सरकार थी, ऐसे में इंदिरा गांधी ने 1980 में आर्टिकल 356 का प्रयोग करके असम की सरकार को हटाकर वहां पर तीन साल के लिए राष्ट्रपति शासन लगा दिया.

अगले 3 साल तक असम के आंदोलनकारी व केंद्र सरकार के बीच कई बार बातचीत हुई, लेकिन कोई बात नहीं बन पाई. आंदोलनकारी नेहरू जी द्वारा कराए गए 1951 के एनआरसी की लिस्ट के हिसाब से अवैध प्रवासियों को गिरफ्तार करने, उनका नाम चुनाव लिस्ट से हटाने और असम से बाहर भेजने पर अड़े रहे. जिसपर इंदिरा का कहना था कि 1950-51 में नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था और 1950 में नेहरू जी जो एक्ट लाए थे, उसमें भी कहा गया था कि अल्पसंख्यक लोगों पर यह लागू नहीं होता है. इसके साथ ही वेस्ट पाकिस्तान से एक साथ ही सारे हिंदू आ गए थे, जबकि ईस्ट पाकिस्तान से लोग धीरे-धीरे आए थे. इंदिरा का कहना था कि 25 मार्च 1971 के बाद आए बांग्लादेशियों को लेकर शेख मुजीबुर्रहमान के साथ भी समझौता हुआ है, इसलिए 25 मार्च 1971 को समयसीमा मानते हुए बात की जाए. दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे और कोई बात नहीं बन पाई.

1983 में असम में हुआ नरसंहार

अब 1983 आ चुका था और राष्ट्रपति शासन भी खत्म होने वाला था. ऐसे में असम में चुनाव कराने का निर्णय किया गया. इंदिरा गांधी चाहती थी कि प्रदेश की 126 विधानसभा सीटों के साथ-साथ लोकसभा की 12 बची सीटों पर भी चुनाव हो.असम आंदोलनकारियों के साथ सहमति बनाने का प्रयास किया गया, लेकिन नहीं बन पाई. चुनाव भी नई लिस्ट के आधार पर कराने का निर्णय किया गया, जिसके बाद असम आंदोलनकारी भड़क गए और इन्होंने विधानसभा चुनावों का बहिष्कार करने का निर्णय किया तो उनको जेल में डाल दिया गया. असम आंदोलन का समर्थन करने वाले अखबारों को बंद कर दिया गया. केपीएस गिल ने भी इंदिरा को चुनाव नहीं कराने का सुझाव दिया, लेकिन वह नहीं मानी और देश में पहली बार चुनाव कराने के लिए 11 सेना की टुकड़ियां और भारी तादाद में पुलिसफोर्स को लगा दिया गया. 14, 15 और फरवरी को कराए गए इस चुनाव में 109 सीटों पर वोटिंग हुई और कांग्रेस को 91 सीटें मिली. इसे साथ ही कुल 32 फीसदी वोट पड़े. चुनावों में सिर्फ कांग्रेस और लेफ्ट ने भाग लिया.

चुनाव होने के बाद असम की जनता में काफी नाराजगी देखी गई. यहां के नागांव जिले के नैली सहित 14 गांवों में असम के मूल निवासियों की भीड़ ने 18 फरवरी को हमला बोल दिया, जिसमें सरकारी आंकड़े के अनसार, एक दिन में 2191 लोगों की मौत हुई. इन गावों में बांग्लादेश से आने वाले लोग रह रहे थे. इसके बाद केंद्र सरकार ने एक कमीश्न का गठन किया, जिसको इस घटना के बारे में बताना था. अगले साल इस तिवारी कमीश्न की रिपोट भी आई, लेकिन इसको कभी किसी के सामने नहीं लाया गया. तब तक इंदिरा को समझ में आ गया था कि असम मसले को हल करने के लिए कुछ करना पड़ेगा और इसके लिए वह अक्टूबर 1983 में एक एक्ट लेकर आई जिसको आईएमडीटी कहा गया.

इंदिरा का अवैध प्रवासी अधिनियम 1983 एक्ट बना रोड़ा

देश में पहले से ही फॉरनर्स एक्ट 1964 था, जिसमें अवैध रूप से रह रहे नागरिक को खुद यह सिद्ध करना होता था कि वह भारत का ही नागरिक है, जिसको लाल बहादूर शास्त्री लेकर आए थे. लेकिन इंदिरा गांधी अवैध प्रवासी (अधिकरण द्वारा निर्धारण) अधिनियम 1983 नाम से एक एक्ट लाई जोकि सिर्फ असम के लिए था. इसमें लिखा था कि हम उन सभी लोगों को अवैध अप्रवासी मानएंगे जो 25 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से भारत में आए हैं. इस एक्ट में यह तय किया गया कि स्टेट और शिकायकर्ता पर किसी भी व्यक्ति को अवैध नागरिक घोषित करने का दायित्व होगा. इसके साथ ही ऐसे रूल्स भी बना दिए जो बड़े कठिन है.

1: अवैध रूप से रहने वाले व्यक्ति को लेकर दो शिकायत आनी चाहिए 2: शिकायत करने वाला शख्स अवैध रूप से रहने वाले व्यक्ति के 3 किलोमीटर के दायरे में रहना चाहिए 3: इसके साथ ही शिकायत करने की 25 रुपये की फीस रखी गई, जोकि उस जमाने का काफी अधिक थी 4: पुलिस उस शख्स के घर पर छापामारी नहीं कर सकती और डिटेन भी नहीं कर सकती थी

राजीव ने किया शांति का प्रयास

इस एक्ट के बाद यह लगभग साफ हो गया कि असम में बांग्लादेश या दूसरी जगह से आए लोगों को पकड़कर बाहर निकालना लगभग मुश्किल हो गया. इसी वजह से इस एक्ट में 0.5 व्यक्ति ही सिर्फ अवैध साबित हो पाए. इससे असम मुद्दे का कोई समाधान नहीं हुआ बल्कि वहां के लोगों के साथ सिर्फ एक मजाक था. जून 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर सेना के एक्शन को लेकर इंदिरा के अंगरक्षों ने अक्टूबर 1984 को उनकी हत्या कर दी और इसके बाद उनके बेटे राजीव गांधी को पीएम बनाया गया. इसके बाद चुनाव हुए और राजीव गांधी 411 सीटे जीतकर देश के प्रधानमंत्री बने.

पीएम बनने के बाद राजीव ने तय किया कि वह असम और पंजाब दोनों के मुद्दों को हल करेंगे. सरकार बनाने के 6 महीने के अंदर ही वह समझौते पर आ गए. पंजाब में 24 जुलाई 1985 को अकाली नेता श्रीहरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ समझौता किया, जिसके बाद उन्होंने 15 अगस्त 1985 को असम के साथ भी समझौता किया, जिसे असम अकॉर्ड के नाम से भी जाना जाता है. हालांकि 20 अगस्त को राजीव गांधी के जन्मदिन के दिन श्रीहरचंद सिंह लोंगोवाल की हत्या कर दी गई.

असम समझौता 1985

इसमें बहुत सारे क्लॉज है, लेकिन क्लॉज 5 सबसे महत्वपूर्ण है. इसमें अवैध प्रवासियों की कट ऑफ डेट एक जनवरी 1966 माना गया, क्योंकि 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ था और उसके बाद आए लोगों को असम का नागरिक नहीं माना जाएगा. इसमें कहा गया कि 1967 में चुनाव की मतदाता सूची में जो लोग शामिल थे, उनको भारतीय नागरिक मान लिया जाएगा. इसपर असम आंदोलन के नेताओं ने भी सहमति जताई.

इसमें दूसरा यह था कि साल 1966 के बाद और 25 मार्च 1971 के बीच आए लोगों को फॉरेन रजिस्ट्रेशन एक्ट 1939 के तहत रजिस्ट्रेशन भारत सरकार के पास करवाना होगा. ऐसे लोगों को 10 साल के लिए वोटर लिस्ट से बाहर निकाल दिया जाएगा. उनको नागरिकों के सारे अधिकार होंगे और उनके पास भारत का पासपोर्ट भी होगा. रजिस्ट्रेशन के 10 साल बाद फिर से वोटर लिस्ट में शामिल कर लिया जाएगा और उनको भारत का नागरिक मान लिया जाएगा.

इसमें तीसरी और अंतिम सहमति इस बात पर बनी कि 25 मार्च 1971 के बाद आने वाले लोगों को चिन्हित करके वोटर लिस्ट से उनका नाम काटा जाएगा और वापस उनके देश भेजा जाएगा. बांग्लादेश के साथ 25 मार्च 1971 के बाद भारत आए लोगों को वापस लेने के लिए समझौता भी था. इसके बाद असम में चुनाव हुए और 1985 में असम गण परिषद 90 से ज्यादा सीट जीतकर सरकार बनाने में कामयाब रही.

प्रदेश के सीएम प्रफुल्ल कुमार महंत बने जबकि गृह मंत्री भृगु कुमार फुकन बने. 1984 में राजीव गांधी केंद्र में पीएम और 1985 में असम में असम गण परिषद की सरकार बनी, जिसके बाद दोनों सरकार ने कुछ समय तक मिलकर साथ काम किया और वह दिखाई भी दिया. इसमें कहा गया था कि नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए राज्य के मूल निवासियों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन करती है.

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