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संत की सीख

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एक धनी सेठ ने एक संत के पास आकर उनसे प्रार्थना की, ‘महाराज, मैं आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना करता हूं पर मेरा मन एकाग्र ही नहीं हो पाता है। आप मुझे मन को एकाग्र करने का कोई मंत्र बताएं।’ सेठ की बात सुनकर संत बोले, ‘मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और तुम्हें एकाग्रता का मंत्र प्रदान करूंगा।’ यह सुनकर सेठ बहुत खुश हुआ। उसने इसे अपना सौभाग्य समझा कि इतने बड़े संत उसके घर पधारेंगे।
उसने अपनी हवेली की सफाई करवाई और संत के लिए स्वादिष्ट पकवान तैयार करवाए। नियत समय पर संत उसकी हवेली पर पधारे। सेठ ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। सेठ की पत्नी ने मेवों व शुद्ध घी से स्वादिष्ट हलवा तैयार किया था। चांदी के बर्तन में हलवा सजाकर संत को दिया गया तो संत ने फौरन अपना कमंडल आगे कर दिया और बोले, ‘यह हलवा इस कमंडल में डाल दो।’ सेठ ने देखा कि कमंडल में पहले ही कूड़ा-करकट भरा हुआ है। वह दुविधा में पड़ गया। उसने संकोच के साथ कहा, ‘महाराज, यह हलवा मैं इसमें कैसे डाल सकता हूं।
कमंडल में तो यह सब भरा हुआ है। इसमें हलवा डालने पर भला वह खाने योग्य कहां रह जाएगा, वह भी इस कूड़े-करकट के साथ मिलकर दूषित हो जाएगा।’ यह सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले, ‘वत्स, तुम ठीक कहते हो। जिस तरह कमंडल में कूड़ा करकट भरा है उसी तरह तुम्हारे दिमाग में भी बहुत सी ऐसी चीजें भरी हैं जो आत्मज्ञान के मार्ग में बाधक हैं। सबसे पहले पात्रता विकसित करो तभी तो आत्मज्ञान के योग्य बन पाओगे। यदि मन-मस्तिष्क में विकार तथा कुसंस्कार भरे रहेंगे तो एकाग्रता कहां से आएगी। एकाग्रता भी तभी आती है जब व्यक्ति शुद्धता से कार्य करने का संकल्प करता है।’ संत की बातें सुनकर सेठ ने उसी समय संकल्प लिया कि वह बेमतलब की बातों को मन-मस्तिष्क से निकाल बाहर करेगा।

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