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पिता सिक्यूरिटी गार्ड थे… घर पर खपरे तक नहीं थे, लेकिन बेटी आज किसी पहचान की मोहताज नहीं

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Womens’s Day: रायपुर. बोकारो (झारखंड) में दादा जी की नौकरी थी. पूरे परिवार का पालन-पोषण वो करते थे. सरस्वती शिशु मंदिर में तब मां ने कई बार इंट्रेंस एग्जाम देने कहा… बेटी हर बार पास होती गई, लेकिन इतने पैसे भी नहीं थे कि वे उसका एडमिशन वहां करवा सके.
कुछ साल बितते गए. बेटी बड़ी होती गई. 5 वीं के बाद पिता ने रायपुर का रूख किया. यहां अपने जीवन के संघर्ष के दिनों की शुरुआत सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी से की. 2000 रुपए की इस नौकरी में 500 रुपए का किराये का मकान लिया. फिर बाद में नजुल की जमीन पर एक झोपड़ी बनाई, जिस पर खपरे तक नहीं थे… और तिरपाल से कई वर्षों तक उस घर को ढ़का. लेकिन अब ये संघर्ष खत्म हो चुका है और अब इस परिवार की बेटी किसी पहचान की मोहताज नहीं है. हम बात कर रहे है टीवी पत्रकार रजनी ठाकुर की.
हम उन्हें महिला पत्रकार कहकर संबोधन नहीं करेंगे. क्योंकि रजनी कहती है कि पत्रकार, पत्रकार होता है. महिला पत्रकार जैसे संबोधन उन्हें पसंद नहीं. वे कहती है कि पुरुषों को तो कभी पुरुष पत्रकार नहीं कहा जाता, तो फिर महिलाओं को महिला पत्रकार कहकर कम क्यों आका जाता है ? खैर…

रजनी बताती है बोकारो से जब वे रायपुर आईं तो छठवीं कक्षा में उनका एडमिशन हुआ. पिता अक्सर अडवानी स्कूल की तारीफ करते थे, तो उन्हें लगता था कि वो भी एक बड़ा स्कूल होगा जहां बच्चे कोट और टाई पहनकर स्कूल जाते होंगे. लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ नहीं था.
बोकारो में तलाशी थी सबसे ‘सस्ती स्कूल’
रजनी कहती है कि बोकारो में जब वे देखती थी कि उनके घर के आस-पास के बच्चे स्कूल बस में वेल ड्रेसअप होकर स्कूल जाते है और उन्हें माता-पिता ने ऐसी स्कूल में एडमिशन कराया जहां फीस सबसे से कम थी. वजह परिवार का संघर्ष था. लेकिन इसमें सबसे अच्छी बात ये थी कि तभी मां ने ये ठान लिया था कि वे बच्चों की पढ़ाई से कोई कांप्रोमाइज नहीं करेंगे. इसलिए जब उनके पति यानी रजनी के पिता की नौकरी शहर (रायपुर) में लगी तो वे बच्चों के भविष्य को देखते हुए यहां शिफ्ट हो गए.
गुरुकुल स्कूल ने मुझे तराशा
रजनी बताती है कि 9 वीं कक्षा के बाद वे रावाभाटा स्थित गुरुकुल स्कूल में अपनी आगे की पढ़ाई के लिए पहुंची. वहीं से जीवन में एक नया बदलाव आया. वे इस स्कूल को अपने जीवन का टर्निंग प्वाईंट मानती है. क्योंकि यहां पढ़ाई के बाद उन्हें ये पता चलने लगा कि वे क्या कर सकती और क्या नहीं.
वे कहती है कि इन दिनों उन्हें पता चला कि वो स्पोर्ट्स में अच्छी नहीं है, कल्चरल एक्टिविटी भी उनके बस की नहीं है. ये भी पता चला कि वे वाद-विवाद प्रतियोगिता में कुछ अच्छा कर सकती है. जब वे स्कूल में सुवाक्य कहती थी और तब बच्चों को एक पेन गिफ्ट मिलती थी तो वे काफी खुश होती थी और उनके मम्मी-पापा भी बेटी के टैलेंट को सपोर्ट करते थे.
12 वीं में 90 % अंक हासिल किए, लेकिन बीएससी में हुई फेल
शुरू से पढ़ाई में होशिर रजनी कहती है 12 वीं में उन्होंने 90 % अंक हासिल किए. लेकिन अच्छे प्रतिशत उनके लिए नेगेटिव साबित हुए. पैरेंट्स ने उन्हें बीएससी करने की सलाह दी. वे रावाभाटा से ऑटो से साइंस कॉलेज आया-जाया करती थी. लेकिन उन्हें इसकी पढ़ाई नहीं करनी थी, इसलिए उनका मन पढ़ाई में लगता भी नहीं था. फस्ट इयर के जब नतीजे आए तो वे 3 सब्जेक्ट में फेल हो चुकी थी.
लेकिन उनका फेल होना उनके लिए पॉजिटिव साबित हुआ. उन्होंने अपने पैरेंट्स को बताया कि वे आर्ट्स लेकर पढ़ाई करना चाहती है और पीएससी की तैयारी कर सिविल सर्विसेस में जाना चाहती है. PSC की पढ़ाई के लिए रजनी ने स्कूल में पढ़ाना शुरू किया, लेकिन कोचिंग के खर्चे से वे टूट चुकी थी और यहां भी उन्होंने जल्द क्विट करने में अपनी भलाई समझी. क्योंकि परिवार कि परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अपना करियर बनाने के लिए लंबा टाइम दें.
फिर मां ने उन्हें कहा कि सिविल सर्विसेस में भी जाने के बाद तुम समाज में एक बदलाव लाने के लिए काम करोगी और पत्रकार बनकर भी समाज के लिए काम करोगी. तो क्यों न तुम पत्रकारिता की पढ़ाई करो.
एक अखबार में सर्वेयर की नौकरी के लिए दिया था रिज्यूम
रजनी ने एक अखबार में सर्वेयर की नौकरी के लिए रिज्यूम दिया. जब वे वहां काम करने गई तो उनके टैलेंट को देखते हुए सर्वेयर की बजाएं बैक ऑफिस का काम दिया गया. जहां उन्होंने 8 महीने काम किया. इसके बाद उन्होंने अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई करते करते जॉब शुरू की. लेकिन यहां भी चुनौतियां कम नहीं थीं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और आज संघर्षों बाद वे किसी पहचान की मोहताज नहीं है.
सिगड़ी से निकलने वाली आग के पास बैठकर की पढ़ाई
रजनी बड़े गर्व से कहती है कि उन्हें ये बात कहने में कोई झिझक नहीं है कि उन्होंने गरीबी के वो दिन देखे जो शायद आज के युवा न देखना चाहते हो. वे बताती है तिरपाल वाली झोपड़ी में बिजली का टैमपरी कनेक्शन था. लेकिन उसमें लाइट सुबह 3-4 बजे ठीक आती थीं. ऐसे में भी कई बार जब लाइट नहीं होती थी, तो वे ठंड के दिनों में सिगड़ी के पास बैठकर पढ़ाई करती थी, जिससे ठंड भी न लगे और रौशनी भी हो. आज उनके इस संघर्ष के बाद मिली कामयाबी से पूरा परिवार काफी खुश है और पिता का भी प्रमोशन हो गया और वे आज एक बड़ी सिक्यूरिटी कंपनी में बतौर इंचार्ज कार्यरत है.
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